सतेन्द्र उपाध्याय/शिवपुरी। एक समय था जब श्रावण महिने की शुरूआत होते ही मौसम में परिवर्तन के साथ-साथ बच्चों के खेलने के खिलौनों से बाजार पट जाया ेकरता था। साबन का महीना आते ही बाजारों में अलग ही रौनक आ जाती थी। लेकिन इस सभ्यता की मार माने या फिर आधुनिक युग का आगाज। अब सब धीरे-धीरे बदल रहा है। अब श्रावण के महीनें में न तो झूला दिखाई दे रहे है। और न ही चकरी भौंरे। शायद मोबाईल ने मासूमों के हाथ से सब छीन लिया है।
एक समय था जब पूरे गांव में श्रावण का अंदाज ही अलग हुआ करता था। पेड़ों पर झूले और युवतीयों की चूडीयों की खनन के साथ-साथ बच्चे साबन के परिवेश में डूबकर भौंरे और चकरी में मग्र रहते थे। पहले चलन में शक्कर के बने हाथी और घोड़े घर में मासूमों की पहली पसंद हुआ करते थे। परंतु अब समय के बदलाब के चलते यह सब मानों गुजरे समय की बात हो गई है।
पहले ग्रामीण परिवेश में झूलों के पड़ते ही कानों में मल्हार गूंजती रहती थी। परंतु आज के परिबेश में लोग मल्हार को बिल्कुल भूल गए है। यह त्यौहार सिर्फ औपराचिता में सिमट गया है। पहले श्रावण माह में महिलाओं के बीच हरी चुडिय़ों की प्रतिष्पद्रा रहती थी। जो अब बैज्ञानिक युग और लोगों की व्यस्तता भरें जीवन में सिमट कर रह गया है।
एक समय था जब पूरा गांव इस त्यौहार को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाता था। ग्रामीण लहगी खेल कर एक दूसरे के प्रति अपने प्रेम का उद्गार करते थे। युवक भौंरे और चकरी में मग्र रहते थे। सावन के महीने में पेड़ो से झूले उतरते ही नही थे। युवतीयां देर रात्रि तक झूले का आनंद लेती थी और मल्हार गाती रहती थी। परंतु समय ने अब सब बदल दिया है। इसे देखकर जगजीत सिंह का गाना याद आता है। ये दौलत भी ले लो,ये सोहरत भी ले लो,भले छीन लो मुझसे मेरी जबानी। मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का साबन वो कागज की कस्ती को बारिश का पानी।
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