
उन्होंने आगे कहा कि- आज पाश्चात्य संस्कृति के कारण पुरुष वर्ग, महिलायें और बेटियां सभी संस्कार रहित होते जा रहे हैं। अत: संस्कृति की रक्षा के लिए पाठशाला एवं धार्मिक शिक्षा से मर्यादाओं का पाठ सिखाने की आवश्यकता है। नीतिकारों ने ‘‘नारी को लता के समान कहा है‘‘ उसे हर उम्र में सहारे की आवश्यकता होती है। वह संस्कार-संस्कृति का सहारा लेकर ही आगे बढ़ती हैं। संस्कारों को खोकर पैसा कमाना महान पाप का कारण है। ‘‘नारी को भारी नहीं आभारी बनना चाहिए‘‘ और नारी के बिना घर सूना होता है। प्रत्येक पिता का कर्तव्य है कि वह अपनी संतान का ‘‘पता नहीं पिता बने‘‘। पिता वही है, जो संतान का अहित होने से बचाए। माँ अपने मातृत्व की भावना से संतान को सँवारे, अन्यथा संतान का जीवन बर्बाद हो जाएगा। माता-पिता अपनी संतान को आधुनिक उपकरण तो दें, परन्तु उनपर नजर अवश्य रखें। इससे उनके जीवन और धर्म का पालन अच्छे से हो सके।
ऐलक दया सागर जी महाराज ने कहा कि- बल तीन प्रकार के होते हैं। शरीर बल, मन का बल, और आत्मा बल। धर्म कार्य आत्मबल से होते हैं। अत: ब्रह्मचर्य के माध्यम से तीनों बल उपकृत होते हैं। मन को अच्छे-बुरे लगने वाले पदार्थ ही आत्मा के स्वभाव को विकृत करते हैं। ब्रह्म में लीन होने के लिए, हमें पांच इंद्रिय एवं मन के साथ-साथ दोनों हाथ और दोनों पांव पर भी अनुशासन रखना चाहिए। आज की पीढ़ी फैशन के नाम पर ओछे-छोटे और फटे (छिद्र बाले) वस्त्र पहनने लगी है। यह महान दरिद्रता का कारण एवं अमंगल का सूचक होते हैं। अत: हमेंशा अच्छे वर्ण के मर्यादिज वस्त्र ही पहनना चाहिए।
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