धर्म कार्यों में प्रतिस्पर्धा नहीं भगवान की भक्ति का भाव होना चाहिए: मुनि श्री अजितसागर

शिवपुरी। श्री सेसई अतिशय क्षेत्र पर पूज्य मुनि श्री अजितसागर जी महाराज के सानिध्य में रविवार को श्री सिद्धचक्र महामंडल विधान का आयोजन भक्ति भाव से किया गया, जिसमें दूसरे दिन 16 अघ्र्य चढ़ाकर, उपस्थित लोगों द्वारा भक्ति भाव से भगवान की भक्ति की गई। खास बात यह रही कि इस दौरान अतिशय क्षेत्र सेसई के भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा के संरक्षण के लिए किए जा रहे बज्र लेप के लिए प्रतिमा निष्ठापन के पूर्व विशेष शान्तिधारा और 64 रिद्धि विधान भी किया गया। 

इस अवसर पर पूज्य मुनि श्री ने कहा कि तन की आवश्यकता तो रोटी, कपड़ा और मकान है। और मन की आवश्यकता मनोरंजन और राग है, परन्तु आत्मा की आवश्यकता भावना, भक्ति और भगवान है। आज व्यक्ति तन और मन की आवश्यकताएं पूरी करने का तो प्रयास सारा जीवन करता है, परन्तु आत्मा की आवश्यकताओं के लिए उसके पास समय नही है। 

आज का यह पावन दिवस आत्मा का महोत्सव है। जो व्यक्ति संसार की बातों की ओर न सोचकर, आत्मा के विषय मे सोचते हैं, उनके लिए फिर तन और मन की आवश्यकताओं की ओर सोचने की आवश्यकता नही होती।

उन्होंने आगे कहा कि अहम और अर्हम में मात्र एक रेप का अंतर है,परन्तुं अहम का उपासक रावण नर्क में पड़ा है, और अर्हम के उपासक भरत चक्रवर्ती ऊपर सिद्धालय में विराजमान है। आत्मा की यात्रा अर्हम के साथ ही पूरी होती है। उन्होंने आगे सीख देते हुए कहा कि धर्म कार्यों में कभी अहंकार नही करना चाहिए। न कभी किसी बड़े कार्य मे बाधक नही बनना चाहिए। नीतिकारों ने कहा है, कभी दूसरे की लाइन छोटी करने की कोशिश नही करनी चाहिए, बल्कि अपनी लाइन बड़ी बनाने की कोशिश करना चाहिए।

एलक श्री विवेकानंद सागर जी महाराज ने कहा कि मन की प्रसन्नता और चित्त की शांति की भावना से अतिशय क्षेत्रों की वंदना करते हुए हमें अपने भावना करनी चाहिए कि अशुभ कर्मों का आश्रव न हो। साथ ही भगवान की भक्ति के बाद हमारे मन में सरलता आनी चाहिए। तभी हमारा भगवान की भक्ति करना सार्थक है।