
जिन्हें नि:शुल्क रूप से दिए जाने का प्रावधान है लेकिन इसके विरोध में भी स्वर उठने लगे है और समाजसेवी तथा कांग्रेस नेता राकेश जैन आमोल ने मुखर होकर फेसबुक पर एक पोस्ट डाली है। जिसमें स्टील की अर्थी के उपयोग को हिन्दु धर्म मान्यताओं के विपरीत बताया है।
इसके विपरीत मानवता संस्था के सुरेश बंसल ने अपनी राय व्यक्त करते हुए स्टील की अर्थी के उपयोग को वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिक बताया है। उनका कहना है कि बांस की अर्थी बनाने में तीन फुट का पूरा बांस लग जाता है। जिसे बचाने के लिए ही स्टील की अर्थी के उपयोग को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। इस पोस्ट के पक्ष और विपक्ष में भी अनेक लोगों ने अपनी राय व्यक्त की हैं।
राकेश जैन का तर्क है कि स्टील अर्थी का उपयोग हास्यास्पद है। उनके अनुसार इसके उपयोग से हिन्दू धर्म की मान्यताओं का उपहास उड़ाया जा रहा है। उनका इस बारे में तर्क है कि बचपन से ही उन्होंने सुना है कि श्मसान में गई लकड़ी बापस नहीं लाई जाती, लेकिन स्टील की अर्थी का उपयोग कर हमें उसे वापस लाकर मानवता संस्था के पास जमा कराना होगा। श्री जैन कहते हैं कि समाजसेवियों को यदि समाजसेवा का इतना ही शौक है तो इसके स्थान पर वह जल संरक्षण और वृक्षारोपण के उपयोग पर कार्य करते तो अधिक वेहतर रहता।
उनकी पोस्ट के बाद पक्ष और विपक्ष में बहस खड़ी हो गई और पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष जगमोहन सिंह सेंगर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए समाजसेवियों को व्यवसायी करार दिया और कहा कि स्टील की अर्थी का किराया पांच सौ रूपए हैं जिसे बसूलना ही समाजसेवियों का लक्ष्य है।
उनकी इस गलत बयानी से पूरी बहस को एक अलग ही दिशा मिल गई। इसके जवाब में मानवता संस्था के सुरेश बंसल ने कहा कि स्टील अर्थियों के प्रचलन के संबंध में बिना सोच समझ के बुद्धिजीवियों द्वारा जो भ्रामक जानकारी फैलाई जा रही है उससे समाजसेवा के लिए प्रोत्साहन के स्थान पर हतोत्साहित किया जा रहा है।
उन्होंने बताया कि स्टील की अर्थी का उपयोग अनिवार्य नहीं है और दूसरे इसका कोई शुल्क निर्धारित नहीं है। इसका उपयोग नि:शुल्क रूप से होता है। उन्होंने श्री जैन को जवाब देते हुए कहा कि बांस की अर्थी में केवल दो डंडे नहीं बल्कि 30 फुट का पूरा बांस लगता है।
जिसका बचाव ही सबसे महत्वपूर्ण है और जहां तक हिन्दू धर्म की मान्यताओं का सवाल है तो बदलाव समय के अनुसार अवश्यंभावी है। पहले लोग घरों से दो-दो लकडिय़ां ले जाते थे, लेकिन क्या आज यह संभव है।
यह भी कहा लोगो ने
समाजसेवी और भाजपा नेता राजेन्द्र गुप्ता का कहना है कि जंगल बचाने के लिए यह एक अच्छी पहल है और इसका स्वागत किया जाना चाहिये।
सेवानिवृत्त कर्मचारी महेश पाण्डेय दोनों पक्षों की भावनाओं का स मान करते हुए कहते हैं कि बांस की उपलब्धि भविष्य में आसानी से नहीं हो सकेगी, इसलिए शायद स्टील व्यवस्था पर ध्यान दिया गया है, लेकिन राकेश जैन की बात भी दमदार है।
श्मसान घाट से उस स्टील की अर्थी को बापस लाने पर हमें थोड़ा अजीव लगेगा। वैसे भी अभी बांस का इतना अकाल नहीं पड़ा है। वृक्षा रोपण कार्यक्रम के तहत मरघट खाने में बांस उगाना चाहिये।
सिंचाई विभाग के यंत्री अवधेश कुमार सक्सेना कहते हैं कि यदि स्टील की अर्थी का उपयोग बढ़ा तो बांस का उत्पादन और विपणन करने बालों का क्या होगा। वैसे भी गर्मी में स्टील की अर्थी बहुत गर्म हो जाती है। पर्यावरण और जल संरक्षण जैसे मुद्दों पर अति उत्साही लोग उटपटांग सुझाव देते हैं।
मनीष गुप्ता की राय कुछ अलग है। वह इस पूरे मुद्दे को राजनीति से जोडक़र देख रहे हैं उनका कहना है कि शिवपुरी में आदमी रोजगार से परेशान हैं। पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची है। जनता पलायन करने को विवश हैं, लेकिन इस बात पर किसी का ध्यान नहीं है।
राजीव पुरोहित का भी कुछ ऐसा ही कहना है। वह कहते हैं भाईयो पहले पानी की सोचो यहां तो पानी के लिए लोग रात-रात भर रतजगा कर रहे हैं। इन स्टील की अर्थियों से कुछ नहीं होगा।