कंचन सोनी शिवपुरी। अब खाडेराव जेबुन्निसा की मनोदशा की कुछ-कुछ समझते जा रहे थे। उन्है अपनी स्थिती पर झुंझलाहट सी आने लगी। सोचने लगे की नरवर गढ को बहाल कराने के मोह में कितनी बडी भूल कर बैठा हूूं। खैर अब स्थिती अधिक गंभीर हो, इसके पूर्व ही यहां से निकल जाना चाहिए।
शाहजादी साहिबा मुझे आज्ञा दे। शहजादे के शिकार की व्यवस्था का प्रबंध करना हैं। उसके लिए विलम्ब को रहा हैंं। जेबुन्निसा को लगा जैसे हाथ में आए हुए मन चाहे पुरूषकार को छीना जा रहा हो। उसे अपने उपर क्रोध आने लगा। कैसे खाडेराव के सामने अपना हद्धय खोल कर रखे।
जेबुन्निसा ने खाडेराव से कहा कि अरे आपने तो कुछ लिया ही नही कहते हुए खाडेराव के सामने मैवे से भरी तश्तरी आगे कर दी। खाडेराव ने अपना हाथ बढाते हुए कुछ मेवे के टूकडे उठाकर मुंह में रखते हुए बोले बस हो गया अब मुझे चलना चाहिए,आप मुझे आज्ञा दे।
आप थोडा इंतजार करे,मै आती हूं,इतना कहर जेबुन्निसा उठ कर प्ंडाल के बने दूसरे कमरे में चली गई। कुछ देर बाद स्वर्ण मुद्राओ से भरा थाल लेकर आई और खाडेराव के आगे बढाते हुए कहा कि यह मेरी ओर से शानदार बहादुरी का तोहफा है इसे स्वीकार किजिए।
खाडेराव ने कहा कि मैं इनका क्या करूंगा,तलवार ही मेरी पूंजी है,ओर शाहजादे आजम ने मुझे इज्जत बख्श दी। लेकिन आपके सम्मान स्वरूप में एक स्वर्ण मुद्रा आपने ईनाम के रूप में रखता हूं। इनता सुन जेबुन्निसा ने सोचा कि वीर पुरूष ऐसे ही होते हैं।
जेबुन्निसा ने फिर कहा कि वीरवर में आपके सम्मान में और क्या कर सकती हूं।मेरे लायक काम हो तो बताईए। में अपने आप को भाग्यशाली मानूंगी कि मैं वीरवर खाडेराव के कोई काम आ सकूं। खाडेराव को जेबुन्निसा के इतने खुलकर कहे वाक्यो से लगा कि अवसर का लाभ लेना ही बुद्धिमानी होंगी। खाडेराव ने जेबन्निसा से कहा की आप हिन्दुस्तान के शाहंशाह की प्रिय पुत्री हैं।
मैने आपकी मुंहरो में से एक ग्रहण करके आपका तोहफा स्वीकार किया हैं। किन्तु यादि आप सचमुच मेरे कार्य से प्रसन्न हैं,तो मुझे यह तोहफा दिजिए कि शांहशाह से नरवर गढ किले को महाराज अनूपसिंह को दिलाने की व्यवस्था कर दिजिए।
ठीक है सरदार खाडेराव जी में जाते ही अब्बा हूजूर से दरख्वास्त करूंगी,ओर कोशिश करूंगी कि आपकी मुराद पूरी हो। जेबुन्निसा ने प्रसन्नता के भाव से कहा, बहुत ध्न्यवाद शाहजादी साहिबा अब मुझे जाने की अनुमति दे।
आठ दिन तक आजम ने नरवर दुर्ग पर डेरा डाले रखा। उसने लगातार आठो दिन शिकार किया और प्रतिदिन ही उसने खाडेराव की वीरता का लोहा माना। मन ही मन वह खाडेराव का सम्मान करने लगा। और खाडेराव को लेकर आगे की रणनीति बनाने लगा। खाडेराव की इन आठ दिनो में शिकार के समय जेबुन्निसा से कई बार आमना-सामना हुआ। दोनो ही झुककर प्रणाम करते थे,लेकिन मुलाकात नही हो सकी।
खाडेराव और गजसिंह ने आकर महाराज अनूपसिंह को पूरा किस्सा सुनाया। खाडेराव की इस वीरता की कहानी और वीरवर के उपाधि से बहुत प्रसन्न हुए,लेकिन असली प्रसन्नता उन्है नरवर किले को बहाल करने की बातचीत से हुई।इसके बाद खाडेराव भटनावर चले गए।
उधर शिवपुरी की सीमाओ पर संकट शुरू हो गया था। गद्दी पठान सीधे-सीधे राजा अनूपसिंह को धमकी देकर गया है कि मेरी मांगे पूरी नही की तो शिवपुरी राज्य की ईट से ईट बजा दूंगा। कहानी क्रमंश आगे जारी रहेगी। कि कैसे खाडेराव की तलवार ने फिर शिवपुरी की समाओ की रक्षा की इस युद्ध् का खाडेराव रासो में अभुदत वर्णन है और वीरवर खाडेराव को भगवान परशुराम की संज्ञा दी हैंं
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