कक्काजू के गढ़ में सेंध लगाने भाजपा आखिर किस पर आजमाएगी दांब?

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शिवपुरी। चुनाव की बेला अब नजदीक आ गई है। जिले में दोनों ही पार्टीयां अपने अपने गणित बिठाने में जुटी हुई है। भाजपा विकाश के मुद्दे को लेकर चुनाव लडऩे की बात कह रही है। जबकि कांग्रेस भ्रष्टाचार सहित कई तमाम खामियों को लेकर चुनाव में उतरने के मूड में है। 2018 के विधानसभा चुनाव में 200 सीटों का लक्ष्य लेकर चल रही भाजपा क्या इस बार भी पिछोर सीट को हारी हुई मानकर चुनाव लड़ेगी अथवा इस सीट को जीतने के लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी। 

यह सवाल इसलिए क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने भले ही यहां से प्रत्याशी लड़ा किया हो, लेकिन एक तरह से कांग्रेस को वाकओवर दे दिया था। देखना यह है कि क्या भाजपा इस बार भी 2013 की तरह पिछोर में हारी हुई लड़ाई लड़ेगी अथवा केपी सिंह के गढ़ पिछोर को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। 

पिछोर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी केपी सिंह 1993 से लगातार चुनाव जीत रहे हैं। श्री सिंह पिछोर विधानसभा क्षेत्र के करारखेड़ा के निवासी हैं, लेकिन वह रहते ग्वालियर में हैं। 1993 में उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की कृपा से टिकट हासिल हुआ था, लेकिन टिकट लेने के लिए श्री सिंह को स्व. माधवराव सिंधिया की एनओसी लेनी पड़ी थी। उस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी श्री सिंह ने भाजपा के उस समय के राजस्व मंत्री लक्ष्मीनारायण गुप्ता को बुरी तरह शिकस्त दी थी और इसके बाद से श्री गुप्ता सक्रिय राजनीति से दूर हो गए थे।

इस विधानसभा क्षेत्र में लोधी मतदाताओं का बाहुल्य है और इनकी संख्या 50 हजार के लगभग है। लोधी बाहुल्य सीट होने के कारण ही 1980 एवं 1985 में कांग्रेस टिकट पर भैयासाहब लोधी चुनाव जीते थे और वह तत्कालीन अर्जुन सिंह सरकार में मंत्री भी रहे थे। श्री लोधी कांग्रेस की गुटीय राजनीति में सिंधिया खेमे से जुड़े थे। बाद में वह भाजपा में शामिल हो गए, लेकिन केपी सिंह ने पिछोर के जातीय समीकरण को  झुठलाते हुए लगातार विजय हासिल की।

उन्होंने पिछोर से भैयासाहब लोधी के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमाभारती के भाई स्व. स्वामी प्रसाद लोधी तथा पिछले चुनाव में प्रीतम लोधी को भी शिकस्त दी थी। श्री सिंह इस लोधी बाहुल्य सीट में लगातार इसलिए जीतते रहे, क्योंकि वह लोधियों के वर्चस्व के विरुद्ध अन्य जातियों को एकजुट करने में सफल रहे। 

केपी सिंह का इस विधानसभा क्षेत्र में इस हद तक दबदबा है कि 1993, 1998, 2003 और 2008 में भाजपा ने हारने के बाद 2013 के विधानसभा चुनाव में इस सीट पर पहले से ही अपनी हार स्वीकार कर ली थी। बाहरी प्रत्याशी प्रीतम लोधी को उम्मीद्वार बनाकर एक औपचारिक लड़ाई लडऩे का निर्णय लिया था तथा प्रीतम लोधी को अपने ही हाल पर छोड़ दिया। प्रीतम लोधी पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमाभारती के कट्टर समर्थक हैं और उन्हें महज 15 दिन पहले ही टिकट देकर चुनाव लडऩे पिछोर भेजा गया था। 

जिले की चार सीटों शिवपुरी, पोहरी, करैरा और कोलारस में भाजपा ने पूरी ताकत लगाई, लेकिन इस सीट को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया, लेकिन अपेक्षा के विपरीत प्रीतम लोधी ने दमखम से चुनाव लड़ा और मुकाबला लगभग बराबर की स्थिति में ला खड़ा किया। हर चुनाव में 18 से 20 हजार मतों से जीतने वाले केपी सिंह 2013 में प्रीतम लोधी जैसे अनाम और बाहरी प्रत्याशी से बड़ी मुश्किल से 6500 मतों से चुनाव जीत सके। 2013 के चुनाव परिणाम से यह तो जाहिर हुआ कि केपी सिंह के विरूद्ध क्षेत्र में एंटीइन्कमवंशी फैक्टर की शुरूआत हो गई है। 

अभी हाल ही में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पिछोर दौरे में जबर्दस्त जनसैलाब उमड़ा था। जिसके साफ संकेत थे कि पिछोर में भाजपा के लिए माहौल अनुकूल है और भाजपा यदि पूरी दमखम से चुनाव लड़े तो पिछोर में इस बार अप्रत्याशित परिणाम देखने को मिल सकते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा पिछोर में केपी सिंह के गढ़ को ध्वस्त करने के लिए पूरा जोर लगाएगी?

भाजपा क्या इस बार भी देगी प्रीतम लोधी को टिकट
पिछोर विधानसभा क्षेत्र में भाजपा टिकट के लिए 2013 के चुनाव में काफी कम अंतर से पराजित हुए प्रीतम लोधी का दावा सबसे मजबूत है। प्रीतम लोधी की खासियत है कि वह विधायक केपी सिंह की तरह साम-दाम-दण्ड-भेद की राजनीति में प्रवीण हैं और विधानसभा क्षेत्र में लोधी मतदाताओं की संख्या लगभग 50 हजार है।

प्रीतम लोधी में लोधी मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की सामथ्र्य है और यदि चुनाव लोधी बरसेस अन्य जाति नहीं हुआ तो प्रीतम चमत्कार भी कर सकते हैं। इसके अलावा पिछोर से पूर्व विधायक नरेन्द्र बिरथरे, धैर्यवर्धन शर्मा और राघवेन्द्र शर्मा भी टिकट के अभिलाषी हैं, लेकिन क्या ये ब्राह्मण नेता प्रीतम लोधी से अधिक दमखम दिखाने की स्थिति में हैं अथवा नहीं?
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