
गोष्ठी के प्रारंभ में अतिथियों के द्वारा मां सरस्वती के चित्र पर दीप प्रज्जवलित कर पुष्पहार अर्पित किए गए। सर्वप्रथम युवा कवि संजय शक्य ने सरस्वती वंदना के उपरांत अनेक दोहे पढ़े-
माधव तुम आए नहीं, कब से यमुना तीर,
रह रह कर विरहन हुई, व्याकुल और अधीर।
आकाशवाणी में कार्यरत राकेश सिंह के मधुर और व्यंग भरे गीतों ने उपस्थित श्रोताआंे को मंत्रमुग्ध कर दिया-
चरागे मोहब्बत जरा तुम जला लो,
मेरी जिंदगी के अंधेरे मिटा दो।
संचालन कर रहे युवा गजलकार प्रदीप अवस्थी ने पढ़ा-
ये जिंदगी तू हमको यूं रूसवा न कर अभी,
हम जाएंगे इक दिन तेरे अहसां उतार कर।
इसके बाद वरिष्ठ रंगकर्मी, नाट्य निर्देशक और कवि दिनेश वशिष्ट ने अपनी एक अतुकांत कविता के बाद मजदूर की पीड़ा व्यक्त करता गीत पढ़ा-
धूप मेरी जिंदगी है और इच्छाएं पसीना,
पत्थरों पर नींद लेकर, सीख पाया आज जीना।
नए तेवर लिए डॉ. महेन्द्र अग्रवाल की नई गजलों के बेहतरीन शेरों ने भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। डॉ. लखनलाल खरे के दो गीत संगोपांग रूपक के श्रेष्ठ उदाहरण थे-
क्यों डरता है बछड़े तू तो, घास मेंढ़ की सूंघ रहा है,
उन साड़ों को देख निडर हो, खड़ी फसल जो चाट रहे हैं।
इसके बाद बारी थी विशिष्ट अतिथि रामकृष्ण मौर्य की रचनाओं के पाठ का-
हमेषा तेरी याद आती है मुझको,
कसम से तू कितना सताती है मुझको।
मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित वरिष्ठ कवि और कलाकार अरुण अपेक्षित ने अपनी हिन्दी गजल का पाठ किया-
जब न ज्वाला मुखी फट सका,
कस गई जेब में मुट्ठियां।
बदचलन नीति के गर्भ का,
बोझ ढोती हैं सौ पीढ़ियां।
अध्यक्षीय आसंदीसी बयोवृद्ध कवि भगवानसिंह यादव ने अपना काव्यपाठ कुछ इस तरह किया-
धूम्रपान करना, शराब पीना, नहीं हैं अच्छी आदतें,
क्यों जला रहे हों, इन्हें पीकर के अपना दिल।
सबसे अंत में आयोजक डॉ.लखनलाल ने उपस्थित कवियों और बड़ी संख्या में उपस्थित श्रोताओं को आभार तथा धन्यवाद दिया। गोष्ठी का यह कार्यक्रम देर रात तक चलता रहा।
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