
कस्बे में करीब 250 से अधिक परिवार ऐसे हैं, जिनके मुखिया गांव में बारात लेकर आए लेकिन शादी के बाद यहीं बस गए। यह परंपरा 510 वर्षों से चली आ रही है। घर जमाइयों के परिवारों की पहचान बुआजी व फूफाजी के नाम से भी है।
पोहरी के प्राचीन किले में लगभग 521 साल पहले खुदाई के दौरान राधारानी की प्रतिमा मिली थी। ग्रामीणों ने आपस में सलाह-मशविरा किया कि अकेले राधाजी की प्रतिमा को स्थापित कैसे करें। बाद में पोहरी से 35 किमी दूर स्थित ग्राम गल्थुनी के ग्रामीण भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा को बरात के रूप में लेकर पोहरी आए।
यहां ग्रामीणों ने श्रीराधा-कृष्ण का विवाह रचाया। विवाह के बाद ग्रामीण जब रथ में देव प्रतिमाओं की विदाई करा रहे थे, तो रथ के पहिए थम गए। बाद में ग्रामीणों ने आपसी सहमति के बाद भगवान श्रीकृष्ण को कस्बे का जंवाई मानकर किले में ही मंदिर बनवाया और दोनों प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा कराई।
जैसे भगवान श्रीकृष्ण पोहरी में घर जमाई बनकर रहने लगे। उसके बाद यह प्रथा इस नगर में चलन में आ गई कईयो दूल्हे इस नगर में बारात लेकर आए और यही के हो कर रहे गए उनकी बाराते तो वापस गई लेकिन वह नही गए।
इस नगर में गांव के घर जमाई मकूल दादा उम्र 85 साल बताते हैं कि पोहरी में पिछले 500 साल में नरवर, मंगरौनी, सतनवाड़ा, बैराड़ और ग्राम गल्थुनी से हर साल सैकड़ों बरातें आती हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश पुरानी मान्यता के चलते अपनी दुल्हन को विदा कराकर नहीं ले गए। मंडप में फेरे लेने के बाद दूल्हों ने बरातियों को तो अपने गांव लौटा दिया लेकिन खुद पोहरी स्थित अपनी ससुराल के ही होकर रह गए।