इस घटना ने समाज की संवेदना के नंगेपन को उजागर कर दिया है

शिवपुरी। कल रामकृष्णपुरम कॉलोनी के एक मकान में घटी घटना ने समाज की संवेदना के नंगेपन को उजागर कर दिया है। मानवता और इंसानियत शर्मसार हुई है। चार्ल्स डार्विन भले ही कहें कि बंदर से इंसान बना है, लेकिन इस घटना ने तो साबित किया है कि इंसान पुन: जानवर बनने जा रहा है। 

इस घटना ने सूचना क्रांति की त्वारितता की भी पोल खोल दी है। पांच दिन तक उस मकान के एक कमरे में 52 वर्षीय भगवत शरण की लाश सड़ती रही और उसी लाश के पास बदहवास माँ पुत्र के उठने का इंतजार करती रही। राजू-राजू कहकर वह अपने दामाद को पुकारती रही, लेकिन उस मकान में उनकी सुध लेने न तो उनकी शिक्षक बेटी और दामाद तथा दो प्रभावशाली भाई आए। संभ्रात कही जाने वाली इस कॉलोनी के एक भी निवासी ने यह देखने की फिक्र नहीं की कि विक्षिप्त माँ और बेटे किस हाल में है। 13 दिन से उस घर में टिफिन सेंटर से खाना नहीं आया और किसी ने भी यह जानने की संवेदना नहीं दिखाई कि बिना भोजन के वे कैसे जीवन की गाड़ी खींच पायेंगे। 

यह कहानी जाहिर करती है कि भले ही 21 वीं सदी में हमने प्रवेश कर लिया हो और भौतिकता के युग में ऊंची-ऊंची छलांगें लगा ली हों, लेकिन समाज की मानवीय संवेदना का लगातार हृास हो रहा है। वसुधैव कुटु बम की भावना तिरोहित होती जा रही है और हमें सिर्फ अपने आप से सरोकार रह गया है। 

आज से 20-25 साल पहले यह परिवार खुशहाल था। माँ जानकी बाई शिवपुरी के पूर्व विधायक गणेश गौतम की सगी बहिन है। चार भाईयों में वह इकलौती बहिन है। उनका विवाह अमोला में हुआ और पति के साथ उनकी गृहस्थी बहुत अच्छी चल रही थी, लेकिन पहले पति का निधन हुआ लेकिन दो बेटों के सहारे भरोसा था कि जिंदगी की गाड़ी अच्छी भली चल जाएगी परन्तु होनी को तो कुछ और मंजूर था। 

शिवपुरी की आरकेपुरम कॉलोनी में मकान बना लिया था। दोनों पुत्र वहीं रहते थे। अचानक बड़ा पुत्र जो कि स्वास्थ्य विभाग में स्वास्थ्य कार्यकर्ता के पद पर कार्यरत था, उसकी दुर्घटना में मृत्यु हुई। इस हादसे से यह परिवार संभल पाता उसके पूर्व ही दूसरा पुत्र भगवत शर्मा जो कि मलेरिया विभाग में वर्कर के पद पर कार्यरत था, उसकी मानसिक स्थिति गड़बड़ा गई। 

इसका परिणाम यह हुआ कि उसने नौकरी छोड़ दी, लेकिन जानकी बाई का गुजारा पति की पेंशन से हो जाता था। एक पुत्र की मौत और दूसरे पुत्र के विक्षिप्त होने का सदमा जानकी बाई पर इस हद तक भारी पड़ा कि वह स्वयं विक्षिप्त हो गई। इसके पूर्व उनकी पुत्री रश्मि का विवाह राजकुमार से हुआ। बताया जाता है कि दोनों रायश्री गांव में शिक्षक के पद पर पदस्थ हैं। 

रश्मि अपनी माँ और भाई की देखभाल के लिए उसी कॉलोनी में मकान बनाकर रहती थी। उनके रहते हुए विक्षिप्त माँ और पुत्र की देखभाल हो जाती थी, लेकिन लगातार सेवा से घबराकर पुत्री और दामाद ने उक्त मकान को बेच दिया और दर्पण कॉलोनी में रहने के लिए चले गए, लेकिन जाते-जाते इतना अहसान भर जरूर कर गए कि रोजाना टिफिन सेंटर से माँ बेटे के लिए खाना आ जाता था, परन्तु सिर्फ खाना ही जीवन नहीं होता। 

जीवन प्रेम और सहारे के सहारे चलता है। जिसकी कमी का प्रभाव यह हुआ कि माँ बेटे की हालत लगातार बिगडऩे लगी। घर में कोई सफाई करने वाला नहीं था। पूरा घर मलमूत्र से भरने लगा। अच्छे भले रिश्तेदारों के होने के बाद भी दोनों माँ बेटे नारकीय जीवन जी रहे थे और मोहल्ले वालों ने भी उनसे नाता तोड़ लिया था। कॉलोनीवासी बताते हैं कि लगभग एक वर्ष से किसी ने उन्हें घर से बाहर आते हुए नहीं देखा था। 

घर का दरवाजा हमेशा बंद रहता था। सिर्फ टिफिन सेंटर बाला प्रतिदिन टिफिन रखने और उठाने के लिए आता था। टिफिन सेंटर संचालक झोंपे बताते हैं कि 23 अगस्त को जब उनके यहां से बिट्टू नामक कर्मचारी टिफिन लेकर गया तो भगवत शरण ने उससे कहा कि हम दोनों की तबियत ठीक नहीं है। 

इसलिए कल से टिफिन मत लाना और जब मंगाना होगा तब हम सूचित कर देंगे। अंतिम बार बिट्टू ने ही दोनों माँ बेटे को देखा। कोई फिक्र भी नहीं करता यदि उस घर से सड़ती हुई लाश की बदबू बाहर नहीं फैलती। किसी ने नहीं सोचा कि उस घर में कैद लोगों के क्या हाल है। सोचा तो सिर्फ यह कि मोहल्ले में कोई कुत्ता या सूअर मर गया है। 

जिसकी बदबू फैल रही है। इससे इंसान की कुत्तई और सुअरी सोच भी जाहिर हुई है। सूअर की तलाश करते-करते जब उस घर में पहुंचे तो एक कमरे में बेटे की सड़ी गली लाश और दूसरे कमरे में उसके उठने की प्रतिक्षा करती माँ मिली। वह बदहवास थी और लगभग पथराई स्थिति में थी, लेकिन उसकी हालत ने समाज की कठोरता को सबके सामने ला दिया है। 
लेखक अशोक कोचेटा शिवपुरी के वरिष्ठ पत्रकार एंव साध्यं दैनिक तरूण सत्ता के संपादक है।