शिवपुरी। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही जैन मत हैं वैसे तो इनमें कोई मतभेद नहीं है, परंतु इनकी धार्मिक क्रियाएं एवं संतों में काफी अंतर है इसी कारण दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों अपने-अपने मंदिरों में नित्य सेवा पूजा करने जाते हैं। इसी भिन्नता के कारण यह एक-दूसरे के मंदिर में सेवा पूजा नहीं कर पाते, परंतु इसी का अपवाद मथुरा से आगे स्थित जिला पलबल में देखने को मिला।
दिगम्बर जैन प्रवीण भाई के यहां जमीन खोदने पर ागवान पाश्र्वनाथ की श्वेताम्बर मूर्ति प्रकट हुई साथ ही अन्य दो मूर्तियां भी निकलीं। चूंकि मूर्ति की आंखें खुली थीं और दिग बर और श्वेता बर मूर्तियों की पहचान आंखों से ही होती है, दिग बर मूर्ति की आंखें बंद और श्वेताम्बर मूर्ति की आंखें खुली होती हैं।
इस शहर में एक भी श्वेताम्बर जैन परिवार नहीं है, चूंकि पूरे क्षेत्र में कोई भी श्वेता बर परिवार न होने के कारण प्रवीण भाई ने उक्त मूर्ति को मद्रास भेजने का विचार बनाया जिसे वे बड़ी सावधानी के साथ मद्रास ले गए, परंतु जिन मंदिरों में मूर्ति की स्थापना की गई वहां संकट के बादल छाने लगे और उसका दोष उक्त मूर्ति को दिया गया जिस पर मद्रास समाज द्वारा उक्त मूर्ति को वापस प्रवीण भाई को बुलाकर दे दी गई।
स्फुटिक की इस मूर्ति की कीमत करोड़ों रुपये बताई जाती है। चूंकि मूर्ति की आंखें खुली थीं इसलिए दिगम्बर समाज ने यह मानते हुए कि उक्त मूर्ति श्वेता बर है या तो इसे श्वेता बर मंदिर में रखा जाये अथवा इसके लिए एक नवीन मंदिर पलबल में बनाया जाये। नवीन मंदिर बनाना एक कठिन कार्य था क्योंकि पलबल क्षेत्र में सभी दिगम्बर परिवार ही निवास करते हैं और श्वेता बर पूजा विधि उन्हें नहीं आती।
इसके बावजूद भी प्रवीण भाई ने अपने ही घर में जहां मूर्ति प्रकट हुई थी वहां एक मंदिर बनाने का निर्णय लिया और अपने ही घर के नीचे एक साफ कमरे में कांच की अलमारी बनाकर पूजा विधि के साथ उक्त मूर्ति की स्थापना की। उन्होंने व उनकी पत्नी ने दिगम्बर होते हुए भी श्वेता बर पूजा विधि सीखी और आज वे पिछले छह माह से उक्त मूर्ति की सेवा पूजा विधि विधान के साथ कर रहे हैं और अब उनका साथ शिवपुरी से पलबल चातुर्मास करने पहुंची साध्वी सुभद्राश्रीजी, वसुंधराश्रीजी, पुण्यधराश्रीजी दे रही हैं जो प्रतिदिन उन्हें पूजा विधि तो सि ाा ही रही हैं, साथ में मंदिर बनाने के लिए अन्य स्थानों से सहयोग लेने में उनकी मदद भी कर रही हैं।
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