जिंदगी की यह कैसी दौड़ जो किसी मंजिल पर नहीं ले जाती

शिवपुरी। इंसान जन्म से लेकर मृत्यु तक दौड़ता ही रहता है। धर्म के लिए उसके पास समय नहीं रहता, लेकिन जब विदाई का क्षण आता है तो उसके हाथ खाली रहते हैं तब पछताने और हाथ मलने से भी कोई फायदा नहीं रहता। समझदार वही है जो जीवन की सच्चाई को जीते जी समझ ले।

उक्त उद्गार प्रसिद्ध जैन साध्वी दिव्य ज्योति जी ने स्थानीय पोषद भवन में आयोजित एक धर्मसभा में व्यक्त किए। उन्होंने संतोष धन को सर्वोपरि बताते हुए कहा कि जिंदगी में वही सुखी है जो अभावों से परेशान नहीं है, बल्कि जो मिला है उसमें उसे परम तृप्ति का एहसास है। धर्मसभा में साध्वी समता कुंवर जी भी उपस्थित थीं।

साध्वी दिव्य ज्योति जी ने कहा कि इंसान जब स्वस्थ होता है तो सिर्फ सांसारिक दौड़ में ही व्यस्त रहता है। ऐसा लगता है कि मानो सारा संसार दौड़ रहा है। जब उससे धर्म-ध्यान करने के लिए कहा जाता है तो वह कहता है कि समय नहीं है जब उसकी इच्छाएं पूर्ण होंगी तब वह धर्म-ध्यान करेगा। यह ठीक वैसी ही बात जब सागर में लहरें खत्म होंगी तब मैं उसमें नहाने के लिए उतरूंगा। जिस तरह से सागर में से लहरों का समाप्त होना संभव नहीं है। वैसे ही इच्छाओं की पूर्ति होना भी संभव नहीं है।

एक इच्छा पूरी होती है तो दूसरी नईं इच्छाएं पैदा हो जाती है। इच्छाओं की कोई सीमा और सं या नहीं है। साध्वी जी ने स्वीकार किया कि जीवन को चलाने के लिए सांसारिक क्रियाओं को करना आवश्यक है, लेकिन हमें आवश्यकताओं और इच्छाओं में फर्क महसूस करना चाहिए। आवश्यकताएं सीमित हैं, लेकिन इच्छाएं अनंत हैं। जिनकी पूर्ति कभी नहीं होती। जीवन समाप्त हो जाता है, लेकिन इच्छाएं बनी रहती हंै। साध्वी जी ने कहा कि हमें उन लोगों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए जिनका जीवन स्तर हमसे कमतर है।

इससे जीवन में तृप्ति का एहसास होगा और जो मिला है उसमें आनंद की प्राप्ति होगी। जबकि हम जो मिला है उसमें खुश नहीं होते, बल्कि जो नहीं मिला। उसमें परेशान होते हैं। अभावों से परेशान होने के कारण ही हम जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने से चूक जाते हैं और आखिरी समय पछताते हुए खाली हाथ जाना पड़ता है। साध्वी जी ने संतोष धन को सबसे बड़ा धन बताया है।