छोटा सा पाप बहुत बड़े पुण्य को भी नष्ट कर देता है: मुनि कुंथुसागर

शिवपुरी- परम पूज्य संत षिरोमणि आचार्य विद्यासागर महाराज के जन्मदिवस शरदपूर्णिमा के अवसर पर स्थानीय महावीर जिनालय पर अनेक कार्यक्रमों का आयोजन आचार्य श्री के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री 108 कुंथु सागर जी महाराज के सान्निध्य में किया गया। प्रात:काल आचार्यश्री का सामूहिक महापूजन किया गया, तथा दोपहर में आचार्य श्री के जीवन पर आधारित एक लिखित प्रश्नपत्र का आयोजन किया गया। साथ ही आचार्यश्री की महा आरती भी की गई।

इस अवसर पर महाराज श्री ने आचार्यश्री के जीवन पर प्रकाष डालते हुये बताया कि बालक विद्याधर में बचपन से ही अच्छे संस्कार थे। मात्र नौ साल की उम्र में ही उन्हें पूरा भक्ताम्बर स्त्रोत याद था, और यदि मंदिर की दूरी पूछी जाये तो उनका जबाब होता था, कि 28 बार नमोकार मंत्र पढऩे में जितना समय लगता है।

ये संस्कार थे उनके बचपन में। बच्चों में संस्कार बचपन में ही डाले जाते हैं। और आज के बच्चों में सब संस्कार समाप्त होते जा रहे हैं फिर कैसे काम चले। जब बच्चों को प्रेम की जरूरत है, संस्कारों की जरूरत है आपने उन्हें छोड़ दिया है। जब बुढ़ापे में तुम्हें उनकी जरूरत होगी वो तुम्हें छोड़ देंगें ये बिल्कुल पक्का है। उन्होंने एक संस्मरण के माध्यम से बताया कि आचार्य श्री के माध्यम से ना जाने कितने बड़े से बड़े कार्य आसानी से संपन्न हो जाते हैं।

पर आज तक आचार्यश्री ना तो कभी किसी बात का श्रेय लेते है, और ना ही कभी अपनी प्रसंसा सुनना पसंद करते है। इतना ही नहीं आचार्य श्री कभी अपना जन्मदिन भी नहीं मनाने देते। वे कहते हैं कि, इस षरीर का जन्म ही मिथ्यात्व के साथ हुआ है। इसका क्या उत्सव मनाना। इसलिये जन्मदिन नहीं दीक्षा दिवस मनाओ।

आगे महाराज श्री ने अपने मंगल प्रवचनों के दौरान कहा कि जिस प्रकार एक छोटी सी चिंगारी बहुत बड़े जंगल को जला कर राख कर देता है। बैसे ही एक छोटा सा पाप बहुत बड़े पुण्य को भी नष्ट कर देता है। मारने के लिये जहर की एक बूंद ही काफी है, और हम सोचते हैं इससे क्या होता है। आज समाज में नषे का चलन बढ़ता ही जा रहा है। किसी भी प्रकार के नषे का सेबन करना आत्म हत्या करने के समान है। इतना ही नहीं कोई षाकाहारी व्यक्ति भी यदि नषा करता है, षराब आदि पीता है तो उसे भी मांस भक्षण का ही दोष लगता है।

इसलिये अपना धर्म बचाना चाहते हो तो अपने जीवन में चार मकार और पांच उदम्बर फलों का त्याग करना ही चाहिये। क्योंकि नषे की सभी बस्तुओं में निरंतर जीवों की उत्तपत्ति होती ही रहती है। और यदि तुम इनका सेबन करते हो तो हिंसा का दोष तो लगेगा ही लगेगा और धर्म भी नष्ट हुये बिना नहीं रह सकता।