एक चिंतन: हरिबल्लभ आक्रमणकारी रहे या टिकिट के लिए नतमस्तक!

राजू (ग्वाल) यादव/शिवपुरी। एक समय में अपनी राजनैतिक शक्ति से सिंधिया खेमे को हिलाने वाले हरिबल्लभ शुक्ला की आक्रमण क्षमता की मिसाल हमें सन् 80, 93 और 2004 में देखने को मिली। जब इस आक्रमणकारी नेता ने अपनी कार्यकुशलता व छवि से ना केवल सिंधिया घराने को गफलत में डालकर चुनावी मैदान मारा तो वहीं अन्य लोगों को राजनीति का सबक भी सिखा दिया।
वर्ष 80 में जहां कांग्रेस से शुरूआत करने वाले हरिबल्लभ ने विधायक बनकर क्षेत्र का नेतृत्व किया तब लगने लगा था कि अब कांग्रेस में एक नए व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है लेकिन वर्ष 1993 में स्वयं ना लड़ते हुए अपने भाई रंजीत शुक्ला को लड़ाया और अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया।

इसके बाद माहौल में बिगड़ा और हरिबल्लभ ने क्षेत्रीय नेतृत्व करने के लि समानता दल और बसपा का दामन तक थामने से बिल्कुल परहेज नहीं किया, हालांकि यह उनका व्यक्तिगत गणित था इसलिए वे इन दलों में शामिल हुए। असल आक्रमण और अपनी शक्ति प्रदर्शन का मुकाबला 2004 के लोकसभा में देखने को मिला जब यहां ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुकाबले हरिबल्लभ मैदान में थे। इस चुनाव में हरिबल्लभ ने अपनी आक्रमण शैली का परिचय तो दिया परन्तु वे मैदान हार गए। फिर इसके बाद सड़कों पर हुई हरिबल्लभ-रामकली चौधरी और ज्योतिरादित्य सिंधिया की लड़ाई को भी आमजन भूल नहीं पाया। इसी बीच स्वयं को अकेला पाकर हरिबल्लभ ने अपनी गलतियां स्वीकार करते हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया का साथ लिया और तत्समय इस मामले का पटाक्षेप भी हो गया।

परन्तु वर्तमान समय में आज भी परिस्थितियां हरिबल्लभ के अनुकूल नहीं है भले ही वह सिंधिया की लड़ाई के बाद कांग्रेस में कर्मठता से काम कर रहे है लेकिन इन दिनों विधानसभा चुनाव सिर पर है और पोहरी क्षेत्र में ब्राह्मण समाज की ओर से सबसे पहले पायदान पर हरिबल्लभ शुक्ला का ही नाम है। अब यहां सिंधिया-हरिबल्लभ के विवाद को सिंधिया समर्थक नहीं पचा पा रहे। यही कारण है कि वह समय-समय पर यहां हरिबल्लभ का खुलकर भी विरोध दर्ज करा चुके है और गत दिवस पोहरी में तो नव निर्वाचित कांग्रेस के प्रदेश महामंत्री बैजनाथ यादव के समक्ष कई कांग्रेसियों ने उनकी पीठ पीछे बुराईयां शुरू कर दी। जब बात का आभास हरिबल्लभ को हुआ तो उन्होंने कार्यक्रम से बाहर जाना ही बेहतर समझा।

आखिरकार इस महत्वाकांक्षा का क्या परिणाम निकाला जाए,एक ओर तो हरिबल्लभ की आक्रामणता को कांग्रेसी पहचानते है तो वहीं दूसरी ओर उन्हें ही टिकिट देने का विरोध दर्ज करते है। दूसरी ओर यहां कांग्रेस में ऐसा कोई और भी उम्मीदवार नहीं जो अपनी छाप जनता के बीच छोड़ सके। ऐसे में कांग्रेस ही नहीं बल्कि स्वयं हरिबल्लभ गफलत में है कि वह करें तो क्या करें, एक ओर तो विधानसभा चुनाव का टिकिट और दूसरी ओर स्वयं की कार्यशैली, ऐसे में कहीं वे टिकिट पाने के लिए स्वयं नतमस्तक ना हो जाए। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

यूं तो आमजन और हरिबल्लभ का व्यक्तिगत व्यवहार पोहरी क्षेत्र में देखने को मिलता है क्योंकि वे यहां से दो बार विधायक रह चुके है और कई दिग्गजों को उन्होंने एडी चोटी का जोर लगाने के बाद भी हार का स्वाद चखा दिया। लेकिन अब हालात बदल चुके है और पार्टी से टिकिट मिले इसकी संभावना यदि है भी तो उनका टिकिट कटवाने के लिए कांग्रेसी भी किसी भी स्तर पर जाने को तैयार है। ऐसे में संभलकर कदम उठाना हरिबल्लभ के लिए भी चुनौती भरा है शायद स्वयं हरिबल्लभ भी अपने राजनैतिक भविष्य को लेकर चिंतित होंगें, कि अब क्या करें...।