शिवपुरी। शरीर से ममत्वभाव को कम करने की प्रक्रिया ही केशलोंच कहलाती है।
इस प्रक्रिया से गुजरकर ही साधू जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर सकता है और वर्ष
में समय-समय पर हाथों से सिर और दाढ़ी के केश निकालकर इन्हें विधिवत
विसर्जित किया जाता है। यही प्रक्रिया जैन दर्शन में केशलोंच कहलाती है। यह
विचार जैन संत मुनि सुरत्न सागर महाराज ने छत्री जैन मंदिर पर आयोजित हुई
धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
केशलोंच की प्रक्रिया को बताते हुए उन्होंने कहा कि जैन संत अपने साथ किसी
भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखते और वह अहिंसा व्रत का पूर्णत: पालन करते
हैं इसीलिए केशलोंच की प्रक्रिया में वह खुद अपने हाथों से सिर और दाढ़ी के
केशों को अलग करने की प्रक्रिया अपनाते हैं। यदि जैन संतों द्वारा किसी
नाई या हज्जाम से केश उखड़वाए जाएं या बनवाए जाएं तो इसके लिए उसे पैसा
देना होगा यही नहीं कैंची आदि से बाल काटने तथा ब्लेड से शेव करने पर
सूक्ष्मजीवों की हिंसा भी होती है अत: जैन संतों द्वारा अहिंसा व्रतों का
पालन करते हुए शरीर से ममत्वभाव घटाकर केशलोंच किए जाते हैं।
उपवास कर, लेते हैं प्रायश्चित
चूंकि हाथों से केश उखाडऩे के दौरान किसी सूक्ष्मजीव को कोई परेशानी हुई हो
तो उससे केशलोंच उपरांत क्षमा याचना भी जैन संतों द्वारा की जाती है और
यही नहीं 24 घंटे में एक बार हाथों में आहार लेकर भोजन करने वाले जैन संतों
द्वारा प्रायश्चित स्वरूप उस दिन का उपवास भी किया जाता है। जैन दर्शन में
यह साधना कठिन मानी जाती है, लेकिन जितने भी जैन संत है वे इस प्रक्रिया
का पूर्णत: पालन करते हैं।