
भले ही वह शासकीय मंचों पर नायक की भूमिका में नजर आते हों लेकिन उनसे ही सवाल है कि क्या वह यहां की जनता के दिलों के नायक है। यदि नहीं तो क्या उन्हें इसके लिए पहल नहीं करनी चाहिये। शायद ही कोई सप्ताह होगा जब डॉक्टर और मरीज आमने सामने न आये हों।
शायद ही कोई महीना ऐसा रहा होगा जिसमें मरीज के अटेंडर पर शासकीय कार्य में बाधा पहुंचाने का मामला दर्ज नहीं हुआ हो। यह स्थिति तब है जब डॉक्टर प्रोटेक्सन एक्ट का सुरक्षा कवच डॉक्टरों के पास है। इसके बाद भी यदि स्थिति बिगड़ रही है तो समझा जा सकता है कि मर्ज लाइलाज है।
आखिर कौन है इसके लिए दोषी? क्यों डॉक्टरों और जनता के बीच विश्वास के रिश्ते दरक रहे हैं? क्यों दोनों पक्ष एक दूसरे को अविश्वास, शक और काफी हद तक दुश्मनी की नजर से देख रहे हैं।
कल फिर अस्पताल में डॉ. कुशवाह के साथ अभद्रता की घटना हुई। आरोप है कि आरोपी शहाबुद्दीन ने डॉक्टर पर मरीज की देखभाल में आरोप लगाते हुए उनके साथ अभद्रता कर दी।
पिछले महिने जिला अस्पताल के सबसे संभ्रांत, स य और व्यवहार कुशल डॉ. एचपी जैन निशाने पर आये। किसी तरह भाग कर डॉ. जैन ने अपनी जान बचार्ई, लेकिन डॉक्टरों पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए मृतक व्यक्ति के अटैंडरों ने जिला अस्पताल के लाखों रूपए के सामान को तहस नहस और क्षतिग्रस्त कर दिया।
जिस परिवार का व्यक्ति मौत का शिकार हुआ हो। उसके तीन-तीन चार-चार पुत्रों पर गंभीर आपराधिक मामले कायम हो जायें, इसे सुखद नहीं कहा जा सकता। ऐसे नहीं जिला अस्पताल की गाथाओं में ऐसे अनेक किस्से हैं, जिनमें मरीज की मौत के साथ-साथ चिकित्सकों तथा स्टाफ के साथ दुव्यवहार के आरोप में उसके परिजन भी गंभीर आपराधिक मामलों में फंसे हैं।
समझा जा सकता है कि मर्ज कितना गंभीर हैं। सवाल यह है कि क्या इसका निदान संभव नहीं है। क्यों डॉक्टर जिसे भगवान कहा जाता है उसे शिवपुरी में दानव कहा जा रहा है। डॉक्टरों के प्रति क्यों कोई विश्वास नहीं कर रहा। असल में इसके लिए दोषी कोई एक पक्ष नहीं बल्कि दोनों पक्ष हैं।
यह कहना गलत है कि डॉक्टर अपने पेशे के साथ न्याय नहीं कर रहे। लेकिन कहीं न कहीं मरीजों के प्रति उनका जो दायित्व है उसका ईमानदारी से तो निर्वहन नहीं हो रहा तभी तो जरासा बीपी बढऩे पर या जरासा मरीज के परिजनों द्वारा उग्र तेबर दिखाने पर डॉक्टर द्वारा उसे बिना किसी संवेदना के एक झटके में ग्वालियर रैफर कर दिया जाता है।
इसके दुष्परिणाम भी होते हैं। उदाहरण स्वरूप 15-20 दिन पहले न्यूब्लॉक निवासी वीरेन्द्र जैन का रक्तचाप बढ़ा और डॉक्टरों ने उसे नियंत्रित करने की बजाय उन्हें तुरंत ग्वालियर रैफर कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि ग्वालियर पहुंचने के पहले ही वीरेन्द्र कुमार जैन की मौत हो गई।
ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण है। पुरानी शिवपुरी निवासी चिमनलाल सोनी की पत्नि को भी लगभग एक साल पहले रक्तचाप बढऩे पर जिला अस्पताल लाया गया। उनकी स्थिति ग्वालियर लायक बनाने के पूर्व ही ग्वालियर रैफर कर दिया गया।
परिणाम यह हुआ कि ग्वालियर पहुंचने के पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण है। जिससे स्पष्ट है कि डॉक्टरों ने अपनी जि मेदारी से पल्ला झाड़ा है। कई मामले ऐसे हुए हैं जब गलत तरीके से डॉक्टर अभद्र व्यवहार के शिकार हुए है।
उनमें दुुव्र्यवहार करने वालों को अहसास हुआ और सार्वजनिक रूप से उन्होंने माफी भी मांगी। लेकिन बड़ा दिल दिखाने की बजाये उन पर आपराधिक प्रकरण दर्ज कराने में डॉक्टरों ने अधिक दिलचस्पी दिखाई। इस तरह से टकराहट का बातावरण डॉक्टरों और जनता के बीच बहुत गहरा गया है तथा इसके मूल में अहंवादी प्रवृत्ति प्रमुख है। जिससे बाहर निकलने में चिकित्सक पक्ष रूचि नहीं दिखा रहा है।
संवेदना का स्थान डॉक्टर प्रोटेक्सन एक्ट ने लिया
चिकित्सकों की सबसे बड़ी पूंजी और ताकत उनकी संवेदनशीलता मानी जाती थी। चिकित्सा एक व्यवसाय नहीं बल्कि समाजसेवा का सर्व श्रेष्ट मंच था। इसी गुण के कारण समाज में चिकित्सक को भगवान की तरह देखा जाता था और उससे अधिक स मान शायद ही किसी व्यक्ति को मिलता हो।
लेकिन मूल्य बदल गये संवेदना व्यवसायिकता में बदल गई। चिकित्सकों को अपनी सबसे बड़ी ताकत संवेदनशीलता पर भरोसा न होकर डॉक्टर प्रोटेक्सन एक्ट पर हो गया। बलिहारी है यह नये जमाने की। मंच पर वे बिंध्याचंल रहे लेकिन जनता की नजर में बौने हो गए।