शिवपुरी-शहर के विष्णु मंदिर परिसर में तीन दिवसीय भक्ति योग वेदान्त संत सम्मेलन के तत्वाधान में आयोजित आर्शीवचनों की श्रृंखला में आचार्य महामण्डलेश्वर परमानन्दगिरिजी ने समापन सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि मनुष्य को करोड़ों काम छोड़कर भगवान का भजन करना चाहिए,
अहं ब्रह्मस्मि देहात्ममाव का त्याग है आद्यगुरू शंकराचार्य ने कहा है- मैं मनुष्य नहीं हूूंॅ, ना देवता, ना यश, ना ब्रह्मचारी, ना गृहस्थ, न वाणप्रस्थ, ना भिक्षु हॅंू, मैं तो चिदानंदस्वरूप शिवस्वरूप हॅंू, विश्व में सनातन धर्म ही ऐसा है जो समस्त मान्यताओं से छुड़ाकर ब्रह्मस्वरूप में स्थित कराता है। मनुष्य को मन्मुखी नहीं बनना चाहिए, कुपश्य का त्याग करना चाहिए।
कार्यक्रम से पूर्व महाराजश्री परमानन्दजी ने अपने शिष्यो के निवास पर भी पहुंचे जहां उनके परम शिष्य विनोद शिवहरे के निवास पर पहुंचकर महाराजश्री का आत्मीय स्वागत किया गया और सपरिवार आर्शीवाद ग्रहण किया। इस दौरान महाराश्री का निवास स्थान संत आश्रम (सत्यम स्टोन फैक्ट्री)के संचालनक आलोक सिंह चौहान ने महाराजश्री के प्रति कृतज्ञता प्रकट की, उनके पावन चरणों से यह प्रांगण प्रफुल्लित व पावन हो गया और सपत्निक आर्शीवाद प्राप्त किया।
महाराजश्री ने सत्य को परिभाषित करते हुए कहा कि सत्य उसे कहते है जो सदा रहे, सत्य कहिया जो विनसै नहीं, आदि अंत में जो नहीं होता वह मध्य में भी नहीं होता। वह सपना होता है जगत सपना है। इस शुभावसर पर संत प्रवर अजयशंकर भार्गव ने हनुमत चरित का चित्ताकर्षक वर्णन भी किया। कार्यक्रम में कानपुर से पधारे योगीराज प्रो.प्रेमचन्द्र मिश्र ने कहा कि रामचरित मानस में नव रसों के साथ रसों का रस रामरस का वर्णन है। नव रस जपतप योग विरागाा, ते सब जलचर चारू तड़ागा।।
संयम नियम फूल फल दाना, हरि पद रति रस वेद बखाना। सेवा मूर्ति स्वामी बोधानन्द ने रसमय भजनों के द्वारा श्रोता समाज को रस आप्लावित किया। बालयोगी स्वामी ज्योतिर्मयानन्द जी ने कहा कि भगवान की भक्ति के बिना सब जगत दुखारी, संतोष धन सबसे बड़ा धन है, गोधन गजधन वाजिधन और रतनधन खानि, जब आवे संतोष धन तब सब धन धूरि समान। मंच का संचालन परम विदुषी साध्वी चैतन्य सिंधु ने कुशलतापूर्वक किया।