अहिंसक होने के लिए मन में करूणा का भाव होना आवश्यक: संत कुंथू सागरजी

शिवपुरी। हिंसा करना ही नहीं, बल्कि हिंसा होने देना भी हिंसा है। अहिंसक होने के लिए पहली शर्त है कि मन में करूणा के भाव और बचाने की भावना होनी चाहिए। किसी चीज का विरोध न करना भी उसका समर्थन होता है। उक्त उद्गार प्रसिद्ध दिग बर जैन संत कुंथू सागरजी महाराज ने आज स्थानीय चंद्रप्रभू जिनालय में आयोजित धर्मसभा में व्यक्त किए। संत कुंथू सागरजी शिवपुरी में चातुर्मास कर रहे हैं।
अपने प्रवचन में मुनि कुंथू सागरजी ने स यक और मिथ्या दृष्टि का अंतर समझाते हुए कर्म सिद्धांत के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराते हुए कहा कि 24 घंटे में कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता जब शुभ या अशुभ कर्मों का बंधन न हो रहा हो। ऐसी स्थिति में हमें अशुभ कर्मों के बंधन से बचने की कोशिश करना चाहिए और गुरू के माध्यम से कर्मों की निर्जरा करनी चाहिए।

मुनि कुंथू सागरजी ने बताया कि जैन दर्शन भावों का दर्शन है। इसलिए मन में शुभ भाव और विचार होना चाहिए तथा करूणा की भावना धारण करनी चाहिए। यदि  ङ्क्षहसा-अहिंसा की व्या या करें तो तर्क  दिए जा सकते हैं कि आत्मा मरती नहीं हैं और शरीर पुदगल होता है। ऐसे में किसी की जान लेने से हिंसा कहां हुई। महाराज श्री ने बताया कि संयोग से वियोग बना देने का नाम हिंसा है। हिंसा से बचने के लिए चलने, फिरने, खाने, पीने, सोने और हर गतिविधि में यह ध्यान रखना चाहिए कि मेरे प्रयासों से जीव मात्र की हिंसा न हो। ऐसी स्थिति में हिंसा होने पर भी हम अशुभ कर्मों से बच सकते हैं। 

जबकि स यक दृष्टि न होने से और विवेकपूर्वक दिनचर्या न होने से हिंसा न होने पर भी हम अशुभ कर्मों का बंधन कर लेते हैं। उन्होंने कहा कि जब तक हम संसार में रस लेते हैं। संसार और पापों से हमें भय नहीं होता, धर्म और धर्मात्माओं से प्रीति नहीं होती तब तक हम स यक भाव से रहित होते हैं और हमारी दृष्टि स यक दृष्टि नहीं होती। उन्होंने कहा कि संसार में रहने के बाद भी हमें निलर््िाप्त भाव से रहना चाहिए। अंत में महाराजश्री ने कहा कि देव, शास्त्र, गुरू का एक साथ सानिध्य बहुत मुश्किल से मिलता है और शिवपुरीवासी सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें इस चातुर्मास में इस सानिध्य का लाभ मिल रहा है। जिससे लाभ उठाकर वह मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर हो सकते हैं।

धर्म हमारे अहंकार का पोषण न करे: मुनिश्री

मुनिश्री कुंथू सागरजी महाराज के अनुसार हमें धर्म तो करना चाहिए, लेकिन मायाचार, अहंकार, रागद्वेष और स मान की भावना से बचना चाहिए। ऐसा न हो कि हमारे दान करने या धार्मिक क्रियाओं से अहंकार पुष्ट हो रहा हो। दान या धर्म बिना किसी भौतिक कामना के होना चाहिए।