भाजपा के लिए पिछोर वहीं कांग्रेस के लिए करैरा चिंता का कारण

अशोक कोचेटा/ शिवपुरी। 6 माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों में चिंता की लकीरें देखी जा रही हैं। भाजपा के लिए चिंता का कारण पिछोर सीट है जबकि कांग्रेस करैरा में विजय के लिए चिंतातुर है। पिछोर में सन् 89 के बाद से भाजपा का प्रत्याशी विधायक नहीं बना है जबकि कांग्रेस ने करैरा में आखिरी विजय सन् 93 के चुनाव में प्राप्त की थी। जब उसके प्रत्याशी किरण सिंह रावत विजयी होने में सफल रहे थे। पिछोर में सन् 93 से कांग्रेस प्रत्याशी केपी सिंह लगातार चुनाव जीत रहे हैं और इस बार भी उन्हें कोई चुनौती मिलती हुई नहीं दिखाई दे रही।

 कांगे्रस के लिए कुछ हद तक पोहरी सीट भी चिंता का कारण है। यहां भी कांग्रेस ने सन् 93 में अंतिम बार विजय श्री प्राप्त की थी। चुनाव चिन्ह की दृष्टि से देखें तो पंजा चुनाव चिन्ह से कांग्रेस प्रत्याशी यहां से सन् 85 से नहीं जीता। 93 में तो कांग्रेस की अधिकृत प्रत्याशी श्रीमती बैजंती वर्मा ने तीर कमान चुनाव चिन्ह से विजय प्राप्त की थी। पिछोर में कांग्रेस की निश्चिंतता का कारण यह है कि उसके पास केपी सिंह जैसा मजबूत प्रत्याशी है। केपी सिंह की मजबूती भी एक तरह से अजूबा है। पिछोर के जातिगत गणित में वह फिट नहीं बैठते। क्षेत्र में बहूसंख्यक लोधी समुदाय है जिनकी संख्या लगभग 35 हजार है और भाजपा के पास भैया साहब लोधी और नवप्रभा पडेरिया जैसे मजबूत लोधी उम्मीदवार हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती के भाई स्वामीप्रसाद लोधी भी भाजपा प्रत्याशी के रूप में सन 2003 में यहां से चुनाव लड़ चुके हैं। लोधी समुदाय अधिकांशतया श्री सिंह विरोधी है, लेकिन इसके बाद भी केपी सिंह का विजय रथ पिछोर में नहीं रूक सका है। यहां तक कहा जाता है कि पिछोर में कांग्रेस का नहीं, बल्कि केपी सिंह का प्रभाव है और इस प्रभाव को वह अनेक मौकों पर रेखांकित कर चुके हैं। भाजपा की दिक्कत यह है कि इस दल ने केपी सिंह की मजबूत चुनौती को ध्वस्त करने का कोई व्यवस्थित तानाबाना नहीं बुना है। भाजपा के स्थानीय नेता एक-दूसरे से संघर्ष में ही व्यस्त हैं और श्री सिंह के खिलाफ कोई मजबूत नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आया। भाजपा में भैया साहब लोधी नवप्रभा पडेरिया, जगराम सिंह यादव, ओमप्रकाश गुप्ता ओम जी टिकिट के दावेदार हैं। इनमें से भैया साहब तो दो बार श्री सिंह से हार चुके हैं।

पिछले चुनाव में जगराम सिंह यादव को भी मात खानी पड़ी थी। इस चुनाव में भाजपा की ओर से नपं अध्यक्ष विकास पाठक का नाम भी सामने आ रहा है। लेकिन श्री पाठक श्री सिंह की चुनौती को ध्वस्त कर पाएंगी इसकी संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए प्रदेश भाजपा ने कोशिश की कि श्री सिंह के मुकाबले वह किसी अपने बाहरी मजबूत प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारे, लेकिन बलि का बकरा बनने को कोई तैयार नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती से लेकर प्रभात झा इस मिशन में असफल हो चुके हैं और भाजपा के लिए पिछोर में जीत इस चुनाव में भी दूर की कौड़ी नजर आ रही है। कमोवेश ऐसी ही हालत करैरा में कांगे्रस की है।

कांग्रेस सन् 98, 2003 और 2008 में यहां से बुरी तरह पराजित हुई है और उनके प्रत्याशियों की जमानतें तक जप्त हुई हैं। इस बार भी करैरा में इक्का-दुक्का प्रत्याशी को छोड़कर अन्य बाहरी प्रत्याशी टिकिट की दौड़ में हैं। कांग्रेस यहां इतनी कमजोर है कि उससे मजबूत स्थिति तो बहूजन समाज पार्टी की है। सन् 2003 के विधानसभा चुनाव में बसपा प्रत्याशी लाखन सिंह बघेल आश्चर्यजनक रूप से यहां से विजयी हो चुके हैं जबकि 2008 के चुनाव में बसपा प्रत्याशी प्रागीलाल जाटव कांगे्रस को पीछे छोड़ते हुए दूसरे स्थान पर रहे। इस चुनाव में भी करैरा से बसपा की चुनौती अधिक मजबूत नजर आ रही है। ऐसी स्थिति में करैरा से कांग्रेस सिर्फ चमत्कार की स्थिति में ही चुनाव जीत पाएगी। कांग्रेस पोहरी में भी हताशा की स्थिति में है।

यहां भी कांग्रेस का गणित काफी कमजोर नजर आ रहा है। पोहरी कांग्रेस में गुटबाजी और टांग खिचाई भी काफी जोरों पर है और टिकिट किसी को भी मिले। कांग्रेसी गुटबाजी से ऊपर उठकर कार्य करेंगे इसमें पर्याप्त संदेह है। कहना पड़ेगा कि कांग्रेस करैरा और पोहरी में आईसीयू में है और पिछोर में यही हालात भाजपा के हैं। ऐसे में न कांग्रेस और न ही भाजपा शिवपुरी जिले में क्लीन स्वीप की स्थिति में है।