शिवपुरी में सतीप्रथा: राधा व्यास ने किया अग्निस्नान

सेन्ट्रल डेस्क
भारत में एक बार फिर सतीप्रथा से प्रभावित महिला द्वारा प्राण त्यागने का मामला प्रकाश में आया है। मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में राधा व्यास (42 वर्ष) नामक महिला ने अपने पति की अकाल मृत्यु का समाचार सुनते हुए मंदिर में जाकर अग्निस्नान कर लिया। राधा को जिला चिकित्सालय में भर्ती कराया गया है जहां उनकी हालत गंभीर बनी हुई है।

इतिहास के पन्नों में तो सतीप्रथा 1829 बंद हो गई थी, लेकिन राजस्थान में रूपकंवर कांड से लेकर शिवपुरी में राधाव्यास कांड तक सतीप्रथा आज भी जिन्दा है और उसका निरंतर पालन किया जा रहा है। फर्क केवल इतना है कि अब सतीप्रथा के प्रभाव में आकर प्राण त्यागने वाली महिलाओं को सरकारी कागजों में दुर्घटना का शिकार या आत्महत्या का प्रयास बताया जा रहा है।

शिवपुरी में राधा व्यास सतीकांड की कहानी बीती रात उस समय शुरू हुई जब सड़क हादसे में घायल कृष्णगोपाल व्यास जिन्हें इलाज के लिए दिल्ली रिफर किया गया था, के निधन का समाचार आया। श्री कृष्णगोपाल व्यास की पत्नि ने इस खबर को सुनते ही मंदिर में जाकर अग्निस्नान कर सतीप्रथा को एक बार फिर जिंदा कर दिया। आग की लपटें एवं चीख की आवाज सुनकर परिजनों ने राधा को बचाने का प्रयास किया एवं उन्हें जिला चिकित्सालय में भर्ती कराया।

इस मामले ने एक बार फिर सरकार के तमाम जागरुकता कार्यक्रमों की पोल खोलकर रख दी है और यह सिद्ध कर दिया है कि मध्यप्रदेश के छोटे शहरों में सैंकड़ों साल पुरानी परपंराओं का पालन आज भी किया जा रहा है, जबकि जिला प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा है। देखना यह है कि अब मध्यप्रदेश सरकार इस मामले की लीपापोती के लिए क्या कदम उठाती है।

क्या है सतीप्रथा

यह प्रथा भारत के अन्य क्षेत्रों के साथ राजपूताना में भी प्रचलित थी। मध्यकाल में मुहम्मद बिन तुगलक और अकबर ने भी इस प्रथा को रोकने का प्रयास किया। ब्रिटिश सर्वोच्चता काल में सामाजिक और सरकारी दोनों दृष्टि से सती प्रथा को रोकने के प्रयत्न हुये है राजा राममोहन राय के प्रयास से प्रेरित होकर लार्ड विलियम बैंटिंक ने 1829 में कानून बनाकर सती प्रथा को रोकने का प्रयास किया। गर्वनर जनरल विलियम बैटिक ने राजपूताना रियासतों को अनेक पत्र लिखे जिसमें उन्हाेने सती प्रथा को बन्द करने के लिये प्रेरित किया। अभिलेखागार में इस सम्बन्ध में अनेक दस्तावेज उपलब्ध है। 1844 तक ब्रिटिष अधिकारी विधि निर्माण के लिये दबाव की अपेक्षा परामर्श और प्रेरणा की नीति का अनुसरण करते रहे, यह प्रयास असफल रहे। इस अवधि में दक्षिण पूर्व राजस्थान की बूंदी, कोटा और झालावाड़ के शासकों व रियासतों के केप्टन रिचर्डस ने खरीता (आदेश) भेजा और सती प्रथा रोकने के कानून बनाने के निर्देष दिए। ब्रिटिश कम्पनी अभी प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की नीति के विरोध में थी। अतः रिचर्डसन के खरीता भेजने के प्रयासों को ब्रिटिश अधिकारियों ने विरोध किया। यद्यपि इस अवधि  कम्पनी अपनी स्थिति रियासतों में मजबूत होने के कारण अहस्तक्षैप की नीति त्यागकर हस्तक्षेप की नीति अपनाने पर विचार कर रही थी। इसी परिपेक्ष में 1839 में पोलिटिकल एजेन्ट जयपुर की अध्यक्षता में एक संरक्षक समिति गठित की गई और सती प्रथा निषेध के लिये मंथन किया, इसके लिये उन्होंने सामन्तों और स्थानीय अधिकारियों का सहयोग लेना उचित समझा।

सती प्रथा उन्मूलन के प्रयास : 
 
1844 में जयपुर संरक्षक समिति ने एक सती प्रथा उन्मूलन हेतु एक विधेयक पारित किया यह प्रथम वैधानिक प्रयास था जिसका समर्थन नहीं तो विरोध भी नहीं हुआ अतः इससे प्रोत्साहित होकर एजेन्ट टू द गर्वनर जनरल (ए.जी.जी.) ने उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर, सिरोही, बांसवाड़ा, धोलपुर, जैसलमेर, बूंदी, कोटा और झालावाड़ में स्थित ब्रिटिश पोलिटिकल एजेन्ट को निर्देष दिये कि वे अपने व्यक्तिगत प्रभाव का उपयोग करते हुए शासकों से सती उन्मूलन हेतु नियम पारित कराने का प्रयास करे। यह प्रयास कई रियासतो में सफल रहा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ ने 1846 में सती प्रथा को विधि सम्वत् नहीं माना। इसी क्रम में 1848 में कोटा और जोधपुर में भी और 1860 में अनेक प्रयासो के बाद मेवाड़ ने भी सती प्रथा उन्मूलन हेतु कानून बनाये गये। उक्त कानून का उल्लंघन करने पर जुर्माना वसूल करने की व्यवस्था की गई। 1881 में चाल्र्स वुड भारत सचिव बना, वुड ने कुरीतियों को रोकने के करने के प्रयासों को प्रभावहीन मानते हुए ए.जी.जी. राजपूताना को गश्ती पत्र भेजकर निर्देष दिये कि कुरीतियों को रोकने के किये जुर्माना की अपेक्षा बन्दी बनाने जैसे कठोर नियम लागू किये जाये। अतः 1861 में ब्रिटिश अधिकारियों ने शासकों को नये कठोर नियम लागू करने की सूचना दी, जिसके अनुसार सती सम्बन्धित सूचना मिलने पर कारावास का दण्ड दिया जा सकता है, जुर्माने के साथ शासक को पद से हटाने और उस गाँव को खालसा किया जा सकता है। यदि शासक इन नियमों की क्रियांवती में लापरवाही दिखाते है तो उन्हें दी जाने वाली तोपों की सलामी संख्या घटाई जा सकती है। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार की दबाव, नीति और स्थानीय अधिकारियो के सहयोग से 19’ वीं सदी के अन्त तक यह कुरीति नियंत्रित हो गई कुछ छुट-पुट घटनाये अवश्य हुई। सरकार के अतिरिक्त सामाजिक जागृति के भी प्रयास हुये। स्वामी दयानन्द सरस्वती का राजस्थान आगमन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा। उन्होने सती प्रथा को अनुचित एवं अमानवीय मानते हुए निन्दनीय कृत्य बताया। उन्होंने शास्त्रों के आधार पर इसका विरोध किया और समाज को एक नई दिशा प्रदान की। आजादी के बाद भी सितम्बर 1987 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय मंे सती प्रथा को विधि सम्मत नहीं माना। न्यायालय ने अपने मत के समर्थन में पर्याप्त प्रसंगों को उद्धत किया।