बाह्य तप के साथ-साथ अंत: तप भी जरूरी: मुनिश्री चिदानंद

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शिवपुरी 30 नवम्बर का.तप की साधना बाह्य और आंतरिक दोनों तरह से करना चाहिए। यदि हम बाह्य तप करते हैं तो आंतरिक तप भी जरूरी है। यदि हम अपनी इन्द्रियों पर काबू कर तप को करते हैं तभी हमें उस तप का लाभ प्राप्त होता है, उक्त प्रवचन मुनिश्री चिदानंद विजय जी म.सा. ने धर्मेन्द्र गूगलिया के निवास स्थल पर उनकी दोनों पुत्रियों मृदुला गूगलिया के अठ्ठाई और महिमा गूगलिया के अठ्ठम करने के अवसर पर कहे।



उन्होंने अनशन की परिभाषा को समझाते हुए कहा कि अपनी इन्द्रियों पर काबू पाना ही अनशन है और इसे ही हम व्रत कहते हैं। हमारे शरीर में सबसे ज्यादा संवेदनशील इन्द्री है जीभ, यदि हमने इस पर काबू पा लिया तो समझो हमने सभी इन्द्रियों पर काबू पा लिया। इसी के स्वाद के चलते हम न तो व्रत कर पाते और न ही अन्य इन्द्रियों पर काबू। प्रवचन के दौरान उन्होंने कमलचंद जी गूगलिया की धार्मिकता का भी बखान किया और कहा कि कमलचंद जी गूगलिया का स्वर्गवास उन सभी कामों के बाद हुआ है जो एक व्यक्ति अपने अंतिम समय सोचता है। 
 
उन्होंने कहा कि सभी जानते हैं कि सिद्घी तप के पारणे का कार्यक्रम में चतुर्विघ संघ के साथ वे इस निवासस्थल पर आये थे और कमलचंद जी के हाथों से गोचरी बैराई गई थी, तत्पश्चात अगले दिन वे स्वर्ग सिधार गये यह उनकी धार्मिकता की निशानी नहीं तो और क्या है? साथ ही उन्होंने मृदुला और महिमा द्वारा की गई तपस्या की भी अनुमोदना की। आज के इस कार्यक्रम में जैन समाज के सभी स्त्री-पुरूष उपस्थित थे।
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