सुख चाहने से नहीं, बल्कि त्याग का पुरुषार्थ करने से प्राप्त होता है, मुनि श्री अजितसागर

शिवपुरी। आज हम आत्मशांति एवं सुख तो चाहतेे हैं, परंतु दुख के कारणों को छोडऩा नहीं चाहते। बिना इन कारणों को छोड़े बिना कितना भी सुख चाहो, कितना भी पुरुषार्थ करो, परंतु सुख मिलने वाला नहीं है। जब तक अशुभ परिणामों से मुक्त नहीं होंगे, तब तक हम शुभता को प्राप्त नहीं कर सकते। तथा जो कार्य हमें पसंद नहीं है, वह दूसरे को भी अच्छा नहीं लगता इस बात का ध्यान रखना चाहिये। उक्त मंगल प्रवचन स्थानीय महावीर जिनालय पर पूज्य मुनि श्री अजीत सागर जी महाराज ने विशाल धर्म सभा को संबोधित करते हुये दिये।

उन्होंने कहा कि, हमारी संगति अच्छी होनी चाहिए, क्योंकि संगति से ही गुण-दोषों की उत्पत्ति होती है। संतजनों की संगति पारस पत्थर के समान है, जो लोहे को स्वर्ण बना देती है। परंतु इसके लिये आवश्यक है कि लोहा जंग रहित होना चाहिए। उसी प्रकार संत की संगति करते वक्त हमें छल-कपट एवं कषाय रूपी जंग से रहित होना चाहिए, तभी संगति से सफलता मिलती है। 

स्वस्थ होने के लिये स्वयं दवा खाना आवश्यक है। दूसरों को दवा खिलाकर स्वयं स्वस्थ नहीं हो सकते। दूसरों को नीचा दिखाने बाला व्यक्ति कभी स्वयं ऊपर नहीं उठ सकता। जैसे भाव हमारे स्वंय के प्रति हैं, वही सभी जीवों के प्रति भी रखो। यही साधुता है, और यही अहिंसा है। साधु हमेशा दूसरों के कल्याण की भावना करता है। वह किसी से न अपेक्षा करता है, न किसी की उपेक्षा करता है। जब हम भी अपने जीवन में पंच पापादि कारणों का त्याग करते हैं तो शांति स्वयं ही आ जाती है। 

आज के इस आधुनिकता के युग में द्रव्य हिंसा कम भाव हिंसा ज्यादा होती है। अत: भाव हिंसा से बच कर जो विशुद्धि बढ़ाएगा, एवं सद्गुणों की प्राप्ति हेतु सद्गुणवानों की संगति करके, अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं। साधू जीवन में अहंकार नहीं होता, क्योंकि अहंकार जहां होता है, वहां साधुता नहीं रहती। अत: हम दु:ख के कारणों का त्याग करें, और सुख के कारणों को अपनाकर सुखी बने। इसीसे हमारे जीवन की सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा।