अपने अंदर की तृष्णा को कम करने का नाम ही त्याग है: अजितसागर महाराज

शिवपुरी। दानशीलता व्यक्ति का सबसे बड़ा गुण है। बच्चों से और पृकृति से हमे दान की शिक्षा लेना चाहिए। पेड़ कभी अपने फल स्वयं नही खाता, जब लोग उसे पत्थर मारते है, तो बदले में वह उन्हें फल देता हैं। प्रकृति की संरचना ऐसी है। दाता भी ऐसा ही होता है, वह जब देता है, तो किसी से कोई अपेक्षा नही रखता, वह तो देने में ही सुख और आनंद का अनुभव करता है। 

देवपूजा और दानशीलता श्रावक के मुख्य कर्तव्य कहे हैं। निरतंर उसे दान करते रहना चाहिए। आज तुम यदि दान देते हो, तो आपकी सन्तान भी आपके इस गुण को ग्रहण करती है, और वह भी आपके दान देना सीखती है। आज जिनेंद्र भगवान की वीतरागता के लिए छोटे-छोटे बच्चों ने अपनी गुल्लक दान में दी, यह बहुत बड़ी बात है। बच्चे अपने ख्वाब पूरा करने के लिए एक-एक पैसा इकठ्ठा करते हैं, परंतु ऐसे बिरले ही जीव होते हैं, जो भगवान के चरणों मे समर्पित करने के लिए अपने पैसेे जोड़ते हैं। 

ऐसी दानशीलता सभी को अपने जीवन मे अपनाना चाहिए। उक्त मंगल प्रवचन स्थानीय महावीर जिनालय पर पूज्य मुनि श्री अजितसागर जी महाराज ने उत्तम-त्याग धर्म पर विशाल धर्म सभा को संबोधित करते हुये दिये।  

मुनिश्री ने आगे बोलते हुये कहा कि- उत्तम-त्याग धर्म संग्रह करने बाले और परिग्रह वालों का नहीं है, सही त्याग तो मूलत: मुनिराजों का होता है, जो जगत के कल्याण के लिये अपना सबकुछ त्याग कर दिया करते है। विरले ही ऐसे जीव होते हैं, जो अपनी सम्पति का पूरा दान कर देते हैं। आप लोग पूरा तो दान नही कर सकोगे, परन्तु थोड़ा-थोड़ा त्याग करके अपने जीवन का उत्थान कर सकते हो। 

यदि आपने अपनी संपत्ति का एक प्रतिशत भी दान कर दिया, तो यह दान आपका बहुत बड़ा माना जायेगा। आज व्यक्ति कितना कमाया इसके लिये तो वहीखाते रखत है, परन्तु दान के लिए कोई परसेंट निर्धारित नही करता है। आप अपनी कमाई में से जिस प्रकार कुछ टैक्स सरकार को देते हो, उसी प्रकार एक टैक्स भगवान के लिए भी निर्धारित करलो तो आपजी बेलेंसशीट पुण्य की ओर चली जायेगी। 

दान करने के बाद अहंकार का भाव मन में नहीं लाना चाहिये, जब भी दान करो, तो ये सोचो अपनी तृष्णा को कम किया है। अपने अंदर की तृष्णा को कम करने का नाम ही त्याग है। अपनी यथाशक्ति दान देने का प्रयास करना चाहिए, उन्होंने राजा भोज के एक कथानक के माध्यम से बताया कि- धर्मात्मा पर कभी विपत्ति नहीं आती और यदि कोई कर्मयोग से कोई विपत्ति आ भी गई तो वह आपके संग्रह किये हुए धन से दूर होने बाली नहीं है। अत: विपत्ति के समय धन नहीं, धर्म ही साथ देता है। 

त्याग प्रकृति का नैसर्गिक गुण हैं, जो वृक्ष अपने फलों नहीं देते वह सड़ जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जो व्यक्ति अपने धन को छुपाकर जीवन जीता है वह नियम से दुर्गति का पात्र बनता है। अत: हमें शक्ति के अनुसार दान करना चाहिए। संतो के प्रवचनों से शिक्षा लेकर स्वयं तो दानी बनें ही और दूसरों को भी प्रेरणा देवें। त्याग का श्रेष्ठता से पालन करने वाले जैन संत होते हैं, जिनकी प्रशंसा प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने भी की। उन्होंने कहा कि जैनी पाई-पाई जोड़ते हैं, और धर्म के लिए अपना सब-कुछ त्याग कर देते हैं। 

ऐलक दयासागर जी महाराज ने कहा कि- धर्म कार्य उत्साह से करना चाहिये। धर्मकार्यों में धन की आवश्यकता ही सब-कुछ नहीं है, समाज कल्याण के लिए धन के साथ अपना तन-मन और समय का भी दान करना चाहिये। पर के उपकार के लिए अपना द्रव्य देना दान है। त्याग एवं दान में अंतर होता है। बुरी वस्तु को छोडऩा त्याग है एवं उत्तम वस्तु को उपकारार्थ देना दान है। सुख का मार्ग त्याग से ही प्रारंभ होता है। दान न करने से दरिद्रता आती है। यदि हम दरिद्रता के बचने के लिए दान अवश्य करना चाहिए।