तात्याटोपे: कभी अंग्रेजों को राह दिखाते, कभी सिंधिया की फौज भड़काते

ललित मुदगल/शिवपुरी। तात्याटोपे का जीवन परिचय तो शिवपुरी के बच्चे बच्चे को रटा हुआ है। ये भी सभी जानते हैं कि वो छापामार युद्ध में निपुण थे परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि वो भेष बदलकर ऐसे ऐसे कारनामे करते थे कि अंग्रेज भी कंफ्यूज हो जाते थे। तात्या आजादी की लड़ाई के एक ऐसे योद्धा हैं जिनकी पूरी कहानी आज तक इतिहास में दर्ज नहीं हुई, क्योंकि इतिहास का लेखन तो अंग्रेजों की रिपोर्ट के आधार पर हुआ और अंग्रेजी रिपोर्ट में तात्या कई नामों से दर्ज हैं।

वो अचानक अंग्रेज छावनियों पर हमला करते। मारकर मचाते और गायब हो जाते थे। ज्यादातर हमलों में तो हताहत हुए अंग्रेज सैनिक उन्हें पहचान ही नहीं पाए। इस तरह के हमले कर उन्होंने अंग्रेजों की सैन्य शक्ति तो कमजोर की ही, खजाना भी लूटा। साथ साथ अंग्रेजी सेना में शामिल भारतियों को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित भी किया। छापामार हमले में वो अक्सर भारतीय सैनिकों को अभय दान दे दिया करते थे।

तात्याटोपे की तलाश कर रहे अंग्रेज अधिकारियों से वो भेष बदलकर मिलते और उनके मुखबिर बन जाते। इस तरह वो बड़ी आसानी से अंग्रेजों को मिसगाइड करते रहते थे। अफसरों से अपनी पहचान का लाभ उठाते। वर्दी पहनकर अंग्रेजी सेना में शामिल हो जाते और सैनिकों को क्रांति के लिए तैयार करते। कई बार रणनीति बनाते कि छापामार हमले के वक्त सैनिक मौके से नदारद रहें ताकि हमला सफल हो जाए। तात्याटोपे का एक भी छापामार हमला कभी बिफल नहीं हुआ।

तात्या भेष बदलकर महाराजा जियाजी राव सिंधिया से मिले। तात्या की रणनीति से प्रभावित होकर महाराजा ने उन्हे मुरार केंप में भेज दिया। यहां तात्या ने सिंधिया के सैनिकों को क्रांति के लिए तैयार किया और मुरार के 10 हजार सैनिक सिंधिया से बागी होकर क्रांतिकारी बन गए। यह तात्या की सबसे बड़ी सफलता थी।

7 अप्रैल, 1859 को अंग्रेंज अफसर खुश थे कि तात्याटोपे को जिंदा गिरफ्तार कर लिया गया। मैजर मीड़ तो फूले नहीं समा रहा था। मात्र 10 दिन की औपचारिक कार्रवाई के ​बाद पकड़े गए तात्या को सजा ए मौत सुना दी गई। 18 अप्रैल 1959 को कलेक्टोरेट के सामने खुले पड़े मैदान में एक पेड़ पर फंदा बांधकर तात्याटोपे को फांसी पर लटका दिया गया।

तात्या की शहादत को देखने हजारों लोग वहां जमा हुए। संभावित उपद्रव को रोकने के लिए अंग्रेजों एवं सिंधिया के सैंकड़ों सैनिक भी वहां तैनात थे। कहते हैं इन्हीं सैनिकों में तात्याटोपे भी खड़े थे, अपने बहरूपिए मित्र की फांसी देख रहे थे। बाद में वो जीवनपर्यंत शिवपुरी में रहे और यहीं उन्होंने समाधि भी ली।