7 चिताओं की राख पर सांसद जिंदाबाद

जयपाल जाट/शिवपुरी। विषय गंभीर है और उद्वेलित कर देने वाला भी। ठिकाना है ग्वालियर लोकसभा का झंडा गांव और कटघरे में है यहां के सांसद व केन्द्र सरकार के श्रम मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर। वही नरेन्द्र सिंह तोमर जो कल तक एक एक वोट के लिए द्वार द्वार हाथ जोड़े खड़े मिलते थे, आज उस गांव में सामंती रौब दिखा रहे हैं जहां मातम पसरा हुआ है।

एक-दो नहीं पूरी 7 मौतें हो चुकीं हैं, 50 से ज्यादा लोग अस्पतालों में भर्ती हैं। जिला प्रशासन क्या, मप्र की राजधानी तक हलचल मची हुई है और सांसद की हरकतें ऐसी की मानवता भी लजा जाए।

माननीय महोदय आए, शोक प्रकट करने आए, लेकिन गांव में मृतकों के दरवाजे तक नहीं गए। एक मंच बनवाया और उस पर जाकर बैठ गए। स्वागत स्वीकार किया, योजनाओं का बखान किया, तालियां बजवाईं, औपचारिक तौर पर शोक भी प्रकट कर दिया और चले गए।

समझ नहीं आया, ये कैसे सांसद हैं जिन्हें एक गांव में हुईं आधा दर्जन से ज्यादा अकाल मौतों पर भी दुख नहीं हुआ, मदद के लिए हाथ नहीं बढ़ाया, स्वास्थ्य विभाग को फटकार नहीं लगाई। इलाज के लिए कोई प्रबंध नहीं किए। बस नेतागिरी की और राम राम।

झंडा गांव के हालात यह हैं कि मौतों का सिलसिला लगातार जारी है। रोके नहीं रुक रहा है। जिला अस्पताल का प्रबंधन तो माशाल्लाह। एक युवती की लाश को ही ग्वालियर रिफर कर दिया। मरीजों को इलाज नहीं मिल रहा। लोग जमीनें और जानवर बेचकर इलाज करा रहे हैं। सरकारी डॉक्टरों पर भरोसा नहीं रहा। मंहगा प्राइवेट इलाज चल रहा है। कोई ग्वालियर तो कोई झांसी में भर्ती है। पैसा पानी की तरह बह रहा है। सबकुछ तबाह होता जा रहा है और नेताजी, तालियां बटोर रहे हैं।

अब विपक्ष पर भी दो शब्द बनते हैं, वोट तो उन्हें भी मिले थे, लेकिन जीत नहीं पाए तो बदला ले रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो पूरी की पूरी कांग्रेस पैरालाइज्ड हो गई है। किसी कांग्रेसी नेता के मुंह से 2 शब्द तक नहीं निकले। यदि सिंधिया के पालतू कुत्ते को जुकाम हो जाता तो मंदिरों में सुन्दरकांड के पाठ आयोजित होते, लेकिन झंडा गांव के ग्रामीणों की क्या औकात जो उनके लिए संवेदनशीलता दिखाए। वहां तो जातिवाद का वोट भी नहीं है।

बात संवेदनशीलता की है तो समाजसेवी संस्थाओं तक भी जाएगी। शिवपुरी में कई करोड़पति समाजसेवी संस्थाएं हैं। वार्षिक सदस्यता ही 10 हजार से ज्यादा है। प्राइमरी के किसी बच्चे को 2 रुपए की पेंसिल दान देते हैं तो 2000 रुपए खर्च कर देते हैं, अपने रुपश्रंगार और फोटोग्राफी में। प्रेसनोट जारी होते है, ऐसे मानो दुनिया के तमाम दुखदर्द दूर करने निकले हैं, लेकिन लाशों को झंडा गांव तक पहुंचाने के लिए किसी ने एम्बूलेंस का डीजल तक नहीं दिया। यहां स्वास्थ्य शिविर लगाते हैं, मुफ्त इलाज का दावा करते हैं परंतु वहां दवाओं का वितरण तक नहीं कर रहे।

अब इससे आगे क्या... बस इतना ही
या खुदा, इन नामुरादों को माफ करना।