प्रेम है पवित्रता का प्रतीक: मुनि कुन्थुसागर

शिवपुरी-कोई माने या न माने यह हकीकत है कि प्रेम हर इंसान की जरूरत है । सभी जीवों के प्रति मैत्री और प्रेम का भाव रखना ही धर्म है और मोह करना अधर्म है । धर्म शास्त्रों में प्रेम करने को मना नहीं किया गया बल्कि मोह करने को मना किया गया है । प्रेम का अर्थ आत्मीय स्नेह होता है और मोह का अर्थ देह का आकर्षण होता है। मैत्री का अर्थ होता है कि संसार में किसी को दु:ख ना हो सभी का कल्याण हो ।
वासना के लिए आज लोग प्रेम का नाम देने लगे हैं जो कि बिल्कुल ही गलत है । क्योंकि प्रेम पवित्रता का प्रतीक है और वासना दुर्भावना का प्रतीक है । दुर्भावना और पवित्रता एक नहीं हो सकती वैंसे ही प्रेम और वासना एक नहीं हो सकते । वासना में देह का आकर्षण होता है जबकि प्रेम में आत्मा को मुख्य रखा जाता है यह आत्मीय स्नेह कहलाता है । यह स्नेह सभी के प्रति हो सकता है । जबकि वासना सभी के प्रति नहीं हो सकती । जिसमें मात्र पाप की गंदगी ही पैदा होती हो उस वासना को प्रेम कहना सबसे बड़ी अज्ञानता है। उक्त उदगार मुनि श्री 108 कुंथु सागर जी महाराज ने स्थानिय चंद्रप्रभु जिनालय में अपने बिशेष मंगल प्रवचनों के दौरान प्रेम रत्न है, कंचन है तो वासना कांच है । प्रेम धर्म है तो वासना अर्धम है । प्रेम सबके प्रति होता है जबकि वासना किसी एक के प्रति होती है । प्रेम को सभी चाहते हैं लेकिन वासना को बुद्धीमान लोग कभी भी अपने पास नहीं आने देते । वासना से प्रेरित व्यक्ति राग द्वेष करता हुआ स्वयं का और दूसरे के परिणामों का बिगाड़ करता है जबकि सभी से प्रेम करने वाला व्यक्ति स्वयं के परिणामों में एवं सभी के परिणामों में निर्मलता पैदा करता है । आज के युवाओं का तर्क रहता है कि मैं जिससे चाहूं उससे शादी कर सकता हॅूं अपने माता-पिता को भी छोड़ सकता हॅूं लेकिन मैं अपनी स्वार्थवृत्ति को नहीं छोड़ सकता । इसके पीछे उनके दिमाग में एक कुतर्क उठता है कि मैं प्रेम के लिए प्यार के लिए कोई भी कुर्बानी दे सकता हॅूं । और वह वासना को प्रेम मानकर कुर्बानी देना चाहते हैं । पर मैं कहता हॅूं कि जो लड़का या लड़की के साथ कुछ दिनों का मेल जोल है वह प्रेम नहीं है बल्कि वह वासना ही है जबकि माता-पिता का जो जन्म से स्नेह है उसकी का नाम प्रेम है। यदि आप प्रेम के लिए कुर्बानी देना चाहते हैं तो सबकुछ छोड़कर माता-पिता की शरण में रहो यही सच्चे प्रेम की कुर्बानी है । वरना माता पिता को छोड़कर किसी लड़के या लड़की के साथ रहने लगने का नाम प्रेम नहीं बल्कि वासना है । यह निश्चित है जो व्यक्ति अपने जीवनदाता, संस्कार दाता माता-पिता को ठुकरा कर किसी तथाकथित प्रेम के चक्कर में पड़कर अलग रहने लगता है वह समझो अपने जीवन को नरक बनाने की तैयारी कर रहा है। आज वर्तमान में युवा पीढ़ी को बहुत आवश्यकता है तो वह यह है कि वह विचारों की पवित्रता आज युवा पीढ़ी के विचार इतने दुषित होते चले जा रहे हैं कि वह धार्मिक विचारों से तो दूर है ही लेकिन वह नैतिक भावनाओं की भी कद्र करना नहीं जानता । आजकल जो कुछ भी समाज में देश में विकृतियां फैल रही हैं उसके पीछे है वैचारिक प्रदूषण । आज हमारे देश को हमारी समाज को हमारे परिवार को ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण आदि से इतना खतरा नहीं है जितना कि वैचारिक प्रदूषण से खतरा है । जैंसे खेत में यदि बीज ना डाला जाये तो उसमें घास फूस अपने आप उग आती है ठीक वैंसे ही यदि युवाओं के मन में धार्मिक नैतिक विचार उत्पन्न ना किए जायें तो विकृत विचार एवं कलुषित भावना खरपतवार की भांति अपने आप उग आती है ।

इसलिए आज आवश्यकता है भौतिकता के युग में लोकिक ज्ञान के साथ साथ उन्हें धार्मिक ज्ञान की शिक्षा भी देना जो बच्चे अपने माता-पिता को सम्मान नहीं दे सकते उन्हें हम साक्षर नहीं कह सकते । वह विद्या किस काम की जो वासना को प्रेरित करती हो और प्रेम को दूषित करती हो और परिवार समाज और राष्ट्र का अहित करती हो । हम प्रेम और वासना के अंतर को समझें और अपने अंतस से वासना को निकालकर प्रेम के भाव उत्पन्न करें तभी हमारा कल्याण होसकता है ।