आचार्य शांतिसागर एक अपराजेय साधक : मुनि श्री अजितसागर

शिवपुरी। विषयाक्ति और कुसंगति में पड़ा हुआ जीव, दया-धर्म से रहित होकर हमेशा स्वयं तो दु:खी होता ही है, दूसरों को भी को दु:खी करता है। और अन्त में दुर्गति का पात्र बनता है। संसारी जीव को चाहिये कि वह अपना उपयोग से अशुभ से हटाकर ऐसा जीवन जिये कि उसकी वजह से प्रकृति के किसी भी प्राणी को दु:ख और कष्ट ना हो। 20 वीं सदी के प्रथमाचार्य शांतिसागर जी इस सदी के श्रेष्ठ आचार्य थे। वह एक अपराजेय साधक थे जो हमेशा धर्म-संस्कृति की रक्षा और उन्नति के लिए हमेशा तत्पर रहे। उन्हीं की यह झलक आज पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज में देखने को मिलती है। 

उक्त मंगल प्रवचन स्थानीय महावीर जिनालय पर पूज्य मुनि श्री अजितसागर जी महाराज ने आचार्य शान्तिसाागर जी महाराज के 62वेें समाधि दिवस के अवसर पर विशाल धर्म सभा को संबोधित करते हुये दिये।

उन्होंने कहा कि धर्म अनुराग और विषय अनुराग में बैसा ही अन्तर है जो सूर्योदय के पहले लालिमा और सूर्यास्त के बाद की लालिमा में होता है। एक लालिमा जगाती है तो एक सुलाती है। संत हमेशा अपनी चर्या से संसार को जगाने का कार्य करते है। आज का व्यक्ति खाने के लिए जीता है, परंतु संत परोपकार के लिए जीते हैं। वह 24 घंटे में एक बार नीरस और अल्प आहार लेकर जीवों के कल्याण के लिये लगे रहते हैं। 

जबकि अशुभ उपयोगी की जिंदगी अंगारे समान होती है, जो दहकता है तो जलाता है और बुझता है तो हाथ काला करता है। तन का बैरी रोग है और मन का बैरी राग है, अत: तन और मन के राग को संत-साधु बनकर ही दूर किया जा सकता है। 

आचार्य शान्तिसाागर जी महाराज के 62वेें समाधि दिवस के अवसर पर बोलते हुये उन्होंने कहा कि- दिगंबर संप्रदाय में बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य शांतिसागर जी महाराज जिन्होंने 25 वर्ष 8 माह निर्जल उपवास किए, इससमय ऐसा निर्दोष तप करने वाला कोई भी संत नहीं है। कहावत है कि पूत के लक्षण पालने में दिखाई देते है।

आचार्य शांतिसागर महाराज में भी बचपन से ही वैराग्य के लक्षण थे। वह कभी भी खेत में पक्षियों को भगाते नहीं थे। वे बचपन से ही अत्यंत दयावान, उपकारी, श्रमशील और कर्तव्यनिष्ठ थे। उनकी यही झलक आज पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज में देखने को मिलती है। अत: हम भी संतो के स्वरूप को समझकर अपना जीवन आदर्शमय और सादगी भरा बनाएं, तभी जीवन का कल्याण संभव है। 

एलक श्री दयासागर महाराज ने कहा कि डरो मत संयम को धारण करो। भटके हुए श्रावकों को सन्मार्ग देने वाले आचार्य शांतिसागर जी थे। वो दया की मूर्ति, सागर के समान गंभीर और उपकारी तो थे ही साथ ही वीतरागी निर्दोष श्रमण परंपरा के जनक भी थे। आचार्य शांतिसागर जी ने समाज रक्षा हेतु उत्कृष्ट त्याग कर श्रेष्ठ समाधि मरण किया। अत: उनसे प्रेरणा लेकर हम साधक भी त्याग के मार्ग पर चलें।

एलक श्री विवेकानंद सागर जी महाराह ने कहा कि- राह पर पर चलना वैसे ही कठिन है, और राह बनाकर चलना तो और भी कठिन है। पूज्य शांतिसागर जी महाराज ने रत्नात्रय का निर्दोष मार्ग स्वयं भी स्वीकारा और दूसरों को भी बताया। आत्म कल्याण हेतु 35 वर्ष के मुनि काल में 25 वर्ष निर्जला उपवास में निकाल दिए। समाज और देश को उन्नत बनाते हुए, अंग्रेजों को भी सबक सिखाया और हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु भी दृढ़ संकल्पित रहे।