ललित मुदगल @ बात मन की/शिवपुरी। कल की तारीख शिवपुरी के इतिहास में दर्ज हो गई। कल जो देखने को मिला वह एक दम चौंकाने वाला सीन था। कुछ छात्र आते हैं और अपनी जन्मभूमि को समस्याओं की गुलामी से आजाद कराने के लिए प्रशासन से भिड़ जाते है और वो श्रीमान जिनके कंधों पर समस्याओं को दूर करने की जिम्मेदारी है। जो इसी बात के लिए सरकारी सिंहासनों पर विराजमान हैं। न्याय की बात करने वाली तरुणाई को जेल भेज देते हैं।
शिवपुरी इस समय समस्यओं की गुलाम है, सडकें नही है, सीवर की खुदाई नागरिकों से जीने का अधिकार छीन रही है। शिवपुरी के कंठ प्यासे है। खुदी हुई सडकों की नई बनने की खबर के साथ धसकने की खबर भी आ जाती है। सीवर प्रोजेक्ट के तहत सड़के कहीं भी कैसे भी खोदी जा रही है। कभी भी काम रोका जा रहा है, किसी को कोई मतलब नही है। शिवपुरी की आधी आबादी का जीवन पानी के संघर्ष के लिए बीत जाता है।
कल जो हुआ उस घटनाक्रम में एक सवाल अपने जबाव के लिए आज भी खड़ा है कि इन सभी समस्याओं से लडने की जिम्मेदारी किसकी है। शिवपुरी के वह नेता जो वोट मागंते हैं और चुनाव जीतकर जनप्रतिनिधि बन जाते हैं। सरकारी ताकत और सुविधाओं का उपयोग करते हैं या फिर वो जो पार्टियों के पदाधिकारी बने खुद को जननायक साबित करते फिरते हैं। जो अपनी गाडियों पर बडी-बडी नेमप्लेट पर पदनाम लगाकर जलबे के साथ चौराहे पर पान खाने जाते है, या फिर वह संवेदनशील समाजसेवी जो समाजसेवा के नाम अखबारो में आए दिन छपते रहते हैं। या फिर शिवपुरी में सरकारी कुर्सियों पर विराजमान श्रीमान अधिकारी महोदय जो लोकतंत्र के परिभाषा से लोक सेवक होते है, या फिर वो छात्र जो अच्छे भविष्य के निर्माण की प्रक्रिया में हैं।
मेरे हिसाब से शिवपुरी का समस्याओ से लडने जिम्मेदारी छात्रों की तो कतई नहीं हो सकती। उनके हाथो में किताबें और कॉपी ही शोभनीय होतीं, नारो से लिखी पट्टिकाए तो नही। फिर भी वह अपनी जन्मभूमि को समस्याओं की गुलामी से आजाद कराने निकल पडे। एक जिम्मेदार बेटे-बेटियों की तरह, पूरी निडरता से भिड गए कलेक्टर एसपी से। उन्हे नहीं पता था कि संसदीय भाषा कैसी होती है, नारे कैसे लगाएं और अधिकारियों से बात कैसे करें कि काम भी हो जाए और अफसर नाराज भी ना हो। वो तो उद्वेलित थे, आंदोलित थे, दर्द से तड़प रहे थे। उनके इस जुनून ने उन्हे जेल का दरवाजा भी दिखा दिया।
लेकिन जनप्रतिनिधि, नेता, नाम के नेता, भाजपा और कांग्रेस सहित अन्य राजनैतिक दलो के पदाधिकारी-कार्यकर्ता, स्वघोषित समाजसेवी श्रीमान क्यों रजाई में छिपे हुए हैं। उन्हे अपना धर्म, अपनी प्रतिज्ञा, अपना प्रण याद क्यों नहीं आ रहा है। कांग्रेसियों को आंदोलन के बाद होने वाली एफआईआर से डर लगता है। भाजपाईयों की अपनी सरकार है, काम करा नहीं पा रहे, विरोध कर नहीं सकते। उनके काम धंधे सेट है विरोध किया तो पार्टी और काम से गए।
अब बचे श्रीमान समाज सेवी, उनसे तो विरोध और प्रर्दशन की मांग नही कर सकते उनके कोटे में यह आता ही नही। हां, नेताओं का अभिनंदन और अधिकारियों का चापलूसीपूर्ण सम्मान समारोह में उन्हे शर्म नहीं आती। मेरे ध्यान में नहीं आता कि सूट-बूट वाली कोई वर्ल्ड क्लास सामाजिक संस्था किसी मुद्दे पर कभी प्रशासन से भीड़ गई हो।
माफ करना शब्द थोडे कडे हो सकते हैं, लेकिन शिवपुरी की विकास की बात पर गंभीर समस्याओं पर भी यदि शिवपुरी के श्रीमान इस तरह गुमसुम रहेंगे तो इन्हे धिक्कारना ही मेरा और आपका धर्म बन जाएगा। मैं तो यहां तक कहना चाहता हूं कि इन तथाकथित महान नेताओं को अपनी पदपट्टिका पर से शिवपुरी शब्द ही हटा लेना चाहिए। ये ही श्रीमान शिवपुरी के माथे पर कलंक हैं, दामन पर धब्बा हैं। आंचल पर दाग हैं। ये अपनी जन्मभूमि के गद्दार हैं। देशभक्त तो कतई नहीं हो सकते। सलाम ने उस तरुणाई को जो शिवपुरी के गर्भ में अंगड़ाई ले रही है। जब राजनीति के वीर यौद्धाओं के हथियार मोंथरे हो गए हैं, ये तरुणाई आशा की किरण बनकर सामने आ रही है।
सावधान श्रीमान, कहीं दिल्ली जैसा तो कुछ नहीं पनप रहा शिवपुरी के गर्भ में। वहां विधानसभा थी, यहां नगरपालिका हो सकती है।
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