होशपूर्वक जीवन जीने वाला नहीं कर सकता कोई पाप: साध्वी वैभवश्री

शिवपुरी। समाज में हिंसा, बलात्कार, अनाचार, भ्रष्टाचार और तमाम पाप इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि इंसान यंत्रवत जीवन जी रहा है। वह जीवित तो है, लेकिन होश में नहीं है। होशपूर्वक जीवन जीने वाला व्यक्ति कोई पाप नहीं कर सकता।

उक्त उद्गार प्रसिद्ध जैन साध्वी वैभवश्रीजी ने ओसवाल गली स्थित पोषद भवन में धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि बेहोश व्यक्ति अर्थात् ज्ञानरहित व्यक्ति कोई अच्छा काम नहीं कर सकता, वहीं ज्ञानी इंसान से कोई गलत काम हो नहीं सकता। इसलिए जैन दर्शन में दया से भी पूर्व ज्ञान का महत्व है। धर्मसभा में संत राममुनि ने बीतरागता को जीवन का लक्ष्य बताया और कहा कि हमें रागी से वैरागी और फिर बीतरागता को प्राप्त करना चाहिए।

साध्वी वैभवश्री जी ने इंसान की विकासगाथा को रेखांकित करते हुए कहा कि विकासवाद का डार्विन का सिद्धांत जैन दर्शन के अनुरूप है। डार्विन ने बताया था कि अमीबा से जीवन की शुरूआत हुई है जबकि जैन दर्शन में जीवन की शुरूआत पुदगल से हुई जिसमें जीव का कोई निजी शरीर भी नहीं होता और एकसाथ वे जीते हैं और एकसाथ मरते हैं। इसके बाद वनस्पति और फिर एकेन्द्रीय, वेइन्द्रीय, तिरेन्द्रीय, चौरेन्द्रीय और पचेन्द्रीय तक विकास होता है।

उन्होंने कहा कि इंसान हम बन गए हैं। शरीर का विकास हो गया है, लेकिन मन का विकास जो होना चाहिए वह नहीं हुआ। यही कारण है कि जवानी में जो गलती और भूलें करते हैं, बुढ़ापे में भी वहीं करते रहते हैं। बुढ़ापे में भी मन का बचपना समाप्त नहीं होता। मन की यात्रा को साध्वी जी ने तब पूर्ण बताया जब मन के परे मन पहुंच जाये। व्यक्ति मन का मालिक बन जाये और जिसने अपने मन पर काबू पा लिया तो वह बेहोशी से मुक्त हो जाता है तथा उसका प्रत्येक कार्य होश से युक्त होता है। उन्होंने सवाल किया कि क्या हम होशपूर्वक जीवन जी रहे हैं? शायद नहीं।

यही कारण है कि सजगता न होने के कारण हत्या, बलात्कार जैसे पाप बढ़ रहे हैं। सजगता कैसे बढ़े, होश कैसे कायम हो इसका एकमात्र सूत्र साध्वीजी ने ज्ञान बताया। उन्होंने कहा कि ज्ञान से ही आत्मा की प्रतीति होती है और आत्मा की प्रतीति जिस किसी को होने लगती है फिर वह चाहते हुए भी पाप नहीं कर सकता। घर-घर में हो रहे झगड़ों की चर्चा करते हुए साध्वी जी ने कहा कि इसका मूल कारण यह है कि बेहोशी के कारण हम अपनी जीवनशैली में बदलाव के लिए तत्पर नहीं होते, बल्कि दूसरे से बदलाव की अपेक्षा रखते हैं।

धर्मसभा में संत राममुनि ने कहा कि धार्मिक व्यक्ति का चरम लक्ष्य जीवन में बीतरागता को प्राप्त करना है और बीतरागता के लिए घर छोडऩा या संन्यास लेना आवश्यक नहीं है। भरतचक्रवर्ती छह खण्ड़ों के राजा होने के बाद भी वैरागी थे क्योंकि वह सांसारिक दायित्वों का निर्वहन तो करते थे, लेकिन उसमें डूबते नहीं थे।

व्यक्तित्व विकास के लिए तीन दिन का शिविर
साध्वी वैभवश्री जी ने बताया कि जीवन में सजगता लाने के लिए वह 29, 30 और 31 दिस बर को तीन दिवसीय शिविर का आयोजन कर रहीं हैं जिसमें प्रतिदिन दो घंटे जीवन में तंद्रा को कैसे तोड़ा जाए और होश को कैसे बढ़ाया जाये इसके सूत्र बताये जायेंगे। साध्वी जी ने शिविर में भाग लेने वालों से अपने नाम लिखाने की अपील की है ताकि वह इसका लाभ उठा सकें।