नगर पंचायतों के चुनावों में खूब बंटा बटौना, परिणाम पर पड़ेगा असर

शिवपुरी। गत दिवस संपन्न हुए चार नगर पंचायतों करैरा, कोलारस, खनियांधाना और बैराड़ में जिस तरह से मतदाताओं को प्रलोभित करने के लिए धन की बरसात की गई उससे लोकतंत्र की अवधारणा को गहरी ठेस पहुंची है और यह सवाल किया जाने लगा है कि क्या चुने गए जनप्रतिनिधि जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करने का बल रखते हैं। हालांकि जिस तरह से कतिपय मतदाताओं का आचरण रहा इससे उनसे यह सवाल किया जाना अप्रासांगिक हो जाता है।

बिकाऊ मतदाता कैसे अपने जनप्रतिनिधियों से हिसाब ले पाएंगे? सूत्रों के अनुसार अध्यक्ष की बात तो छोडि़ए पार्षद पद के लिए कुछ उ मीदवारों ने मतदाताओं के वोट हासिल करने के लिए तीन-तीन हजार रूपये तक खर्च किए और इस रकम की एक बड़ी राशि वोटों के ठेकेदारों की तिजोरी तक पहुंची है। उनके लिए चुनाव सालभर की कमाई का माध्यम बन गया है। धन के अलावा जमकर शराब पिलाई गई और जमकर तमाम तरह की सुविधाएं बिकाऊ मतदाताओं को दी गईं। लेकिन प्रशासन गहरी निंद्रा में सोता रहा। यह कहकर प्रशासनिक अधिकारियों ने पल्ला झाडऩे की कोशिश की कि आचार संहिता का पालन लोकसभा और विधानसभा में होता तथा नगरीय निकाय चुनाव में वह उतनी स ती दिखाने में असमर्थ है।

नगर पंचायत चुनावों में इतना पैसे का अपव्यय कभी देखने को नहीं मिला। ऐसा लगा कि प्रत्याशियों को जनता पर भरोसा नहीं, बल्कि अपने धन बल पर अधिक भरोसा है। भरोसा हो भी क्यों नहीं। मतदाता का एक वर्ग का आचरण तो इतना शर्मनाक रहा कि उसने चुनाव लड़ रहे दोनों प्रत्याशियों से पैसे लेने में न तो गुरेज किया और न ही संकोच किया। मतदाताओं के ठेकेदार भी विरोधी प्रत्याशियों से मिले रहे। ठेकेदारों ने एक-एक हजार वोट की रकम दोनों प्रत्याशियों से बसूली और उनमें से सिर्फ कुछ लोगों को ही धनबल के माध्यम से उपकृत किया, लेकिन इसका सुखद परिणाम यह देखने को मिल सकता है कि चुनाव में धनबल पर भरोसा करने वाले उ मीदवार धरासायी हो सकते हैं।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने अपना नाम न छापने की शर्त पर बताया कि हमारे उ मीदवार का एक खोखा खर्च हो गया। विरोधी उ मीदवार ने कितने खर्च किए हमें नहीं मालूम। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रही कि पहले चुनावी भ्रष्टाचार का सहयोग उ मीदवारों और उनके परिजन तथा समर्थकोंं तक सीमित रहता था और पार्टी इसमें संलिप्त नहीं रहती थी, लेकिन अब तो पार्टी स्तर पर भ्रष्टाचार की रूपरेखा तैयार हुई। ऐसे प्रमाण सामने आ रहे हैं। दलों ने वरिष्ठ नेताओं और बाहरी कार्यकर्ताओं की फौज को प्रचार समाप्त होने के बाद नपं क्षेत्र में झोंक  दिया और चुनाव जीतने के लिए जितने भी जरूरी और गैर जरूरी, जायज और नाजायज हथकण्डों का इस्तेमाल है वह उन्होंने किया।

गहरा सवाल यह है कि यदि इस तरह से चुनाव जीते जाएंगे तो राजनीति में भ्रष्टाचार कैसे खत्म होगा? एक-एक करोड़ रूपया खर्च कर यदि अध्यक्ष और पार्षद कोई बनेगा तो उसकी नजर पूरी रकम को मुनाफा सहित बसूल करने पर केन्द्रित रहेगी। शायद इसी कारण राजनीति फक्कड़ कार्यकर्ताओं से दूर होती जा रही है और इसी कारण राजनीति में भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है।