राजनीति की अजब त्रासदी, अपराधी चलेगा पर गरीब नहीं

शिवपुरी। एक जमाना था जब पार्टी के प्रति निष्ठावान और नेताओं के प्रति वफादार होना विधायक पद के टिकिट प्राप्त करने की अनिवार्य शर्त हुआ करती थी। लेकिन अब वक्त बदल गया है। निरंतर महंगे होते जा रहे चुनाव ने गरीब कार्यकर्ताओं को टिकिट की दौड़ से दूर कर दिया है। भले ही पार्टी के प्रति उनका समर्पण कितना भी गहरा क्यों न हो और अपने गॉड फादर के प्रति उनकी वफादारी में कोई शक न हो।
इससे बढ़कर हास्यास्पद बात क्या होगी कि टिकिट आकांक्षी अपराधी हैं तो चलेगा। वह दलबदलूं है तो चलेगा, लेकिन गरीब कार्यकर्ता कतई नहीं। ऐसे कार्यकर्ता के पार्टी और नेता के प्रति समर्पण का भी कोई मूल्य नहीं है।

राजनीति में यह बदलाव लगभग एक दशक से आया है। पहले उस उम्मीदवार को टिकिट दिया जाता था जिसकी जनता में पकड़ मजबूत हो। जिसकी पार्टी के प्रति निष्ठा असंदिग्ध हो और जिस पर अपने नेता का अटूट विश्वास हो। इसी कसोटी पर कसकर स्व. माधवराव सिंधिया ने अपने चहेते कई कार्यकर्ताओं को उपकृत किया और धनबल से ऊपर उन्हें प्राथमिकता दी। श्री सिंधिया ने सन् 80 में गणेश गौतम को टिकिट देकर विधायक बनाया। उसी समय कोलारस विधानसभा क्षेत्र से अपने विश्वासपात्र पूरन सिंह बेडिय़ा को टिकिट दिया। श्री बेडिय़ा स्कूली शिक्षक थे और श्री बेडिय़ा ने इस्तीफा देकर चुनाव लड़ा तथा विजयी हुए। पिछोर से श्री सिंधिया ने भैय्या साहब लोधी को दो बार टिकिट दिया और उन्हें मंत्री भी बनाया। कार्यकर्ताओं को परखने की स्व. सिंधिया की क्षमता बेमिशाल थी। उन्होंने हरिवल्लभ शुक्ला के राजनैतिक गुणों को पहचानकर उन्हें विधायक बनाया। 

भाजपा में भी कार्यकर्ताओं की क्षमता के आधार पर टिकिट मिलते थे। स्व. सुशील बहादुर अष्ठाना, गोपाल दण्डोतिया, कामताप्रसाद, दामोदर शर्मा, महावीर प्रसाद जैन जैसे कार्यकर्ताओं को उनके गुणों के कारण टिकिट मिला। इनमें से कोई भी करोड़पति नहीं था। लेकिन निरंतर महंगे होते जा रहे चुनाव ने गरीब कार्यकर्ता को टिकिट की दौड़ में काफी पीछे छोड़ दिया है। एक दल के आम कार्यकर्ता को इस चुनाव में पूरा भरोसा था कि उसे एक विधानसभा क्षेत्र से टिकिट अवश्य मिलेगा। नेता का उसके प्रति विश्वास था तो वह यह भरोसा क्यों नहीं पालता। लेकिन उसे यह कहकर टका सा जबाव दे दिया कि क्या चुनाव लडऩे के लिए तुम्हारे पास एक करोड़ की व्यवस्था है। सवाल यह है कि राजनीति के इन बदलते मूल्यों से यदि भ्रष्टाचार बढ़ रहा है तो इसमें गलत क्या है। क्योंकि जो उम्मीदवार चुनाव में एक करोड़ खर्च करेगा वह इस राशि को सूद तथा मुनाफे सहित निकालेगा। ऐसे में जनता यदि पिसती रहे तो पिसे, किसे फिक्र है।

कैसे बढ़ा चुनाव में खर्चा?

चुनाव में अब मीडिया मैनेजमेंट पर भी एक बड़ी राशि खर्च होने लगी है। मतदाताओं को प्रलोभित करने के लिए अधिकांश उम्मीदवार शराब का भी इस्तेमाल करने लगे हैं। यही नहीं मतदाताओं को खरीदने के लिए गांठ में बड़ी धनराशि भी होना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में जीता गया प्रत्याशी क्यों जनता के प्रति जवाबदेह होने लगा।

पैसा है तो सारे गुनाह माफ हैं

यदि आप बाहुबलि हैं या धनबलि हैं तो राजनीति में आपके सारे गुनाह माफ हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से पाला बदलकर तीन कांग्रेसियों ने भाजपा प्रत्याशी का साथ दिया था, लेकिन उन्हें सजा तो नहीं मिली, बल्कि नगरपालिका पार्षद पद का टिकिट दे दिया गया।